वर्षों में विवाह सम्बन्ध होता था। इससे साफ जाहिर है कि
शातिभेद ८०० वर्ष से प्रचलित हुवा है ।
—————
मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है कि वह अधिकार चाहता है। परन्तु प्राचीन काल में मनुष्य अपने आपके कर्तव्यपरायण बनाकर अधिकार प्राप्त करता था। मतलब यह है कि केवल कर्तव्य-पालन ही अधिकार-प्राप्ति का एकमात्र साधन था । परन्तु जब भारतवर्ष में मूर्खता ने डेरा डाला और लोग विद्याहीन और विवेकहीन होगये तो स्वार्थियों ने अपने अधिकारों की रक्षा का यह सरल उपाय किया कि ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि जन्म से मानना चाहिये चाहे उसमें वह योग्यता हो या न हो। इसका नतीजा वही हुवा जो होना चाहिये था। लोग अपने कर्त्तव्यों की ओर से बिलकुल लापरवाह हो गये और निरे मूर्ख और कर्तव्यहीन होते चले गये । मिथ्या अभिमान बढ़ता गया । आज हम देखते हैं कि महामूर्ख होते हुये भी केवल नाम रख लेने से ही उनकी पूजा हो रही है। मैं नाम नहीं लूगा पाठक स्वयं विचार कर अपने आस पास दृष्टि डालें । सब कुछ देखने में आ रहा है परन्तु हमने आंखें बन्द कर रखी हैं। हम जानते हुये भी अनजान बने बैठे हैं।