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जाति-भेद का उच्छेद


का आधार ले कर साम्यवादी लोग कहते हैं कि किसी भी प्रकार के दूसरे सुधारों के पूर्व आर्थिक सुधार होना आवश्यक है, उनमें से प्रत्येक का खण्डन किया जा सकता है। क्या एक मात्र आर्थिक उद्देश्य से ही मनुष्य सब काम करता है ? साम्पत्तिक शक्ति ही एक मात्र शक्ति है, इस बात को मानव-समाज का अध्ययन करने वाला कोई भी मनुष्य मानने को तैयार नहीं।

साधु-महात्माओं का सर्वसाधारण पर जो शासन होता है, वह इस बात को स्पष्ट कर देता है कि व्यक्ति की सामाजिक स्थिति भी बहुधा शक्ति और अधिकार का कारण बन जाती है। भारत में करोड़ों लोग कङ्गाल साधुओं और फ़कीरों की आज्ञा क्यों मानते हैं ? भारत के करोड़ों कङ्गाल अपना अंगूठी-छल्ला बेच कर भी काशी और मक्का क्यों जाते है ? भारत का इतिहास दिखलाता है कि मजहब एक बड़ी शक्ति है । भारत में सर्व साधारण पर पुरोहित का शासन मजिस्ट्रेट से भी बढ़ कर होता है। यहाँ प्रत्येक बात को, यहाँ तक कि हड़तालों और कौंसिलों के चुनाव को भी, बड़ी आसानी से मज़हवी रङ्गत मिल जाती है। मज़हब का मनुष्य पर कितना प्रभुत्व रहता है, इस का एक उदाहरण रोम के प्लीबियन है। उनके उदाहरण से इस विषय पर बड़ा भारी प्रकाश पड़ता है । रोमन प्रजातन्त्र के अधीन उन शासनाधिकार में भाग प्राप्त करने के लिए प्लब लोगों ने युद्ध किया था, जिस से उन को एक प्लीबियन प्रति- निधि भेजने का अधिकार मिल गया था। इस प्रतिनिधि को प्लीबियनों की कोमिटिया सेण्टूरिण्टा नाम की एक समिति चुनती थी। वे अपना कौंसिल (प्रतिनिधि) इस लिए चाहते थे