समता में विश्वास करता हूँ ?" यह कहना है कि ऐसा विश्वास ही
पर्याप्त है, साम्यवाद के आशय से अपनी पूरी अज्ञता प्रकट करना
है । यदि साम्यवाद एक व्यावहारिक कार्य क्रम है और एक दूर का
आदर्श मात्र नहीं, तो साम्यवादी के लिए यह प्रश्न नहीं रहता कि
वह समता में विश्वास करता है या नहीं । उस के लिए प्रश्न यह है
कि क्या वह एक व्यवस्था के तौर पर, एक सिद्धान्त के रूप में,
एक श्रेणी के दूसरी श्रेणी के साथ दुर्व्यवहार करने और उसे
दबाने की परवा करता है, और इस प्रकार अत्याचार और उत्पात
को एक श्रेणी को दूसरी श्रेणी से अलग करने रहने की आज्ञा
देता है ? अपनी बात को पूरी तरह से खोल कर समझाने
के लिए मैं उन बातों का विश्लेषण करना चाहता हूंँ, जिन का
साम्यवाद की अनुभूति के साथ सम्बन्ध है ।
यह बात स्पष्ट है कि जो आर्थिक क्रान्ति साम्यवादी लोग लाना चाहते हैं, वह तब तक नहीं आ सकती, जब तक कि किसी क्रान्ति के द्वारा शक्ति हाथ में न ले ली जाय। उस शक्ति को हथियाने वाला ज़रूरी तौर पर सर्वहारा मनुष्य (Proletariat) होगा। तब पहला प्रश्न यह होता है -“क्या भारत का सर्वहारा ऐसी क्रान्ति लाने के लिए इकट्ठा हो जायगा ? इस कार्य के लिए कौन बात उस को प्रेरणा करेगी ? मुझे ऐसा जान पड़ता है कि दूसरी बातें बराबर मान कर, एक मात्र चीज़ जो मनुष्य को ऐसा काम करने की प्रेरणा कर सकती है, वह यह भाव है कि जिन दूसरे मनुष्यों के साथ मिल कर वह काम कर रहा है, वे समता, बन्धुता और सब से बढ़ कर न्याय के भाव से प्रेरित हो कर काम कर रहे हैं । सम्पत्ति के सभीकारण के लिए लोग