किसी क्रान्ति में तब तक सम्मिलित नहीं होंगे, जब तक उन्हें यह
मालूम नहीं होगा कि क्रान्ति हो चुकने के बाद उन के साथ
समता का व्यवहार होगा और जात-पाँन और सम्प्रदाय का कोई
भेद नहीं रक्खा जायगा। क्रान्ति के नेता बनने वाले साम्यवादी का
यह विश्वास दिलाना कि मैं जाति-भेद को नहीं मानता, पर्याप्त नहीं
होगा। इस आश्वासन का आधार बहुत अधिक गहरा होना
चाहिए, अर्थात् इस का परिचय व्यक्तिगत समता और बन्धुता
की दृष्टि से एक दूसरे के प्रति देश-बन्धुओं के मानसिक भाव से
मिलना चाहिए। क्या कोई कह सकता है कि भारत की सर्व
साधारण जनता, निर्धन होते हुए भी, धनी और निर्धन के भेद के
सिवा और किसी भेद को नहीं मानती ? क्या कोई कह सकता है।
कि भारत की निर्धन जनता जात-पाँत का, ब्राह्मण और शूद्र का,
ऊँच और नीच का भेद नहीं मानती है यदि सचाई यह है कि वह
मानती है, तो ऐसी जनता से धनवानों का विरोध करने के लिए
इकट्ठे हो जाने की क्या आशा की जा सकती हैं ? यदि सर्वहारा
(Proletariat ) इकट्टा हो कर विरोध नहीं कर सकता तो
ऐसी क्रान्ति कैसे सम्भव हो सकती है ? युक्ति के लिए मान
लीजिए कि भाग्य की चपलता से ऐसी क्रान्ति हो जाती
है, और साम्यवादियों के हाथ में शक्ति आ जाती है, तो क्या उन्हें
भारत में प्रचलित विशेष सामाजिक व्यवस्था से उत्पन्न होने वाली
समस्याओं से निवटना नहीं पड़ेगा ? मैं नहीं समझता, भारत में
साम्यवादी-शासन जनता में ऊँच-नीच और स्पृश्य-अस्पृश्य का
भेद-भाव उत्पन्न करने वाले पक्ष-पातों से पैदा हुई समस्याओं के
साथ युद्ध किए बिना एक क्षण के लिये भी कैसे चल
सकता है ।
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साम्यवाद और वर्ण-भेद