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जाति-भेद का उच्छेद


को छोड़ कर इसी की जड़ पर कुठाराघात करते ।

[ ४ ]

जाति-भेद या वर्ण-व्यवस्था केवल श्रम का ही विभाग नहीं, वरन् साथ ही श्रमिकों का भी विभाग है । श्रम-विभाग में मनुष्य अपनी योग्यता, शक्ति और रुचि के अनुसार कोई व्यव- साय करता है, परन्तु वर्ण-विभाग में विशेष जाति में जन्म लेने वाले मनुष्यों को एक विशेष कर्म और दूसरी जाति में जन्म लेने वाले मनुष्यों को दूसरा कर्म करना ज़रूरी होता है। इस में भङ्गी हलवाई का काम नहीं कर सकता, ताँगा नहीं चला सकता, और पुरोहित नहीं बन सकता । इसी प्रकार एक क्षत्रिय भूखों भले ही मर जाय, परन्तु वह हल को हाथ नहीं लगा सकता । इस वर्ण- विभाग ने एक हिन्दू को दूसरे हिन्दु से बिलकुल अलग कर दिया है। हिन्दुओं को एकता के सूत्र में बाँधने वाली एक भी चीज़ नहीं । कोई भी ऐसा सामाजिक कार्य नहीं, जिस में भङ्गी से ब्राह्मण तक सभी हिन्दू समान भाव से भाग ले सकें । हिन्दुओं को एकता के सूत्र में बाँधने वाली एक भी बात नहीं, सब इन को अलग-अलग करने वाली ही हैं। हिन्दू अपने को एक राष्ट्र या एक समूची जाति के अङ्ग के रूप में कभी अनुभव नहीं करता, उसे सदा अपने वर्ण का ही भान रहता है। किसी हिन्दू से पूछिये, तुम कौन हो ? वह, “मैं हिन्दू हैं” ऐसा उत्तर न देकर 'मैं ब्राह्मण हूँ,' क्षत्रिय हूँ, या वैश्य हूँ, यही उत्तर देगा । हिन्दू को सारा जीवन जन्म से मरण-पर्यन्त केवल उस के अपने वर्ण की तंग चहारदीवारी के भीतर ही सीमित रहता है । वह दूसरे हिन्दुओं के सुख-दुःख के लिए कोई सहानुभूति नहीं रख सकता ।