केवल संस्कार-रूप में, वरन आचरण में भी बनी रहती हैं। ब्राह्मण
शब्द के साथ उच्चता और शूद्र शब्द के साथ नीचता का जो भाव
लगा दिया गया है, उस का संस्कार बड़े से बड़ा हिन्दू-सुधारक भी
दूर नहीं कर सकी । भारतीय इतिहास में सदा में यह चातुर्वर्ण्य -
विभाग ब्राह्मण को पूज्य और शूद्र को जघन्य बताता आया है। इसे
सब किसी ने लोकसत्ता का विरोधी माना है । चातुर्वर्ण्य को गुण-
कर्म-स्वभाव-मूलक बता कर उसपर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और
शुद्र के दुर्गन्धयुक्त लेबिल लगाना एक प्रकार का महा पाखण्ड-
जाल फैलाना है। शूद्रों और अछूतों को चातुर्वर्ण्य शब्द से ही
घृणा है, उन की आत्मा इस के विरुद्ध विद्रोह करती है । इतना
ही नहीं, सामाजिक सङ्गठन की पद्धति के रूप में भी यह चातुर्वण्य
असाध्य तथा हानिकारक है और बहुत बुरी तरह से विफल सिद्ध
हो चुका है।
[ ६ ]
क्या चातुर्वण्य तभी साध्य माना जा सकता है, जब पहले दो बातें सम्भव मान ली जाँय । एक बात तो यह कि पहले यह मान लिया जाय कि सारी जनता को चार निश्चित श्रेणियों में बाँटा जा सकता है । इस दृष्टि से चातुर्वर्ण्य- मर्यादा अफलातून की सामाजिक व्यवस्था से बहुत मिलती। है । अफलातून मानता था कि प्रकृति से मनुष्य-समाज तीन श्रेणियों में बँटा हुआ है । कुछ व्यक्तियों में केवल क्षुधायें-वासनायें- प्रधान थीं । इनको उसने श्रमिक और वणिक श्रेणियों का नाम