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जातिभेद का उच्छेद


स्वाभाविक प्रवणतायें नहीं । सामाजिक और व्यक्तिगत योग्यता चाहती है कि व्यक्ति की समझ को विकसित करके इस योग्य बना दिया जाय कि वह अपने लिए स्वयं व्यवसाय चुन सके । वर्ण-भेद में इस नियम को भङ्ग किया गया है, क्योंकि इस में व्यक्तियों के लिए पहले से ही काम नियत करने का यत्न पाया जाता है ।।

व्यक्तिगत भावना और व्यक्तिगत पसन्द को इस में कोई स्थान नहीं । इसका आधार भवितव्यता का सिद्धान्त है । सामा- जिक योग्यता पर ध्यान देने से हमें इस बात को स्वीकार करने पर विवश होना पड़ेगा कि औद्योगिक पद्धति में सब से बड़ी बुराई उतनी इस से पैदा होने वाली दरिद्रता और कष्ट नहीं, जितनी कि यह बात कि बहुत से लोग ऐसे कामों में लगे हुए हैं जिन में उनको कोई रुचि नहीं । ऐसे काम निरन्तर उन में घृणा, दुर्भाव और उनका परित्यग करने की लालसा उत्पन्न किया करते हैं। भारत में अनेक ऐसे व्यवसाय हैं, जो हिन्दुओं द्वारा नीच समझे जाने के कारण उन लोगों में, जो उन को कर रहे हैं, उन से विरक्ति उत्पन्न करते हैं। वे लोग सदा यही चाहते हैं कि हम इन कामों को छोड़ दें और इन को न करें । कारण यह है कि हिन्दू-समाज ने इन व्यवसायों पर कलङ्कित और तिरस्कृत होने का टीका लगा रखा है। इस लिए इन को करने वाले लोग भी तिरस्कृत होते हैं। वह काम क्या उन्नति कर सकता है, जिस के करने वालों के न मन और न हृदय उसे काम में लगते हैं ? इस लिए आर्थिक सङ्गठन के रूप में वर्ण-भेद एक हानिकारक संस्था है, क्यों कि यह मनुष्य की प्राकृतिक शक्तियों और प्रवणताओं को सामाजिक नियमों की आकस्मिक आवश्यकताओं के अधीन कर देता है ।