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जीवतत्वशास्त्र और वर्ण-भेद


विवाह करने से केवल रोकता है। किसी एक वर्ण में से कौन दो आपस में विवाह करें, इसके चुनाव की यह कोई निश्चित रीति नहीं है । यदि वर्ग का मूल सुप्रजनन-शास्त्र है, तो उपवर्गों का मूल भी सुप्रजनन ही होना चाहिए । परन्तु क्या कोई व्यक्ति गम्भीरतापूर्वक इस बात का प्रतिपादन कर सकता है कि वर्णों के अवान्तर भेदों का मूल भी सुप्रजनन-शास्त्र अथॉन मुन्दर सन्तान उत्पन्न करने का विज्ञान है ? ऐसी बात को सिद्ध करने का यत्न करना बिलकुल बेहूदगी होगा। यदि वर्ण से तात्पर्य वंश से है, तो उपवर्णों के प्रभेद का अर्थ वंश के प्रभेद नहीं हो सकता, क्योंकि तब उपवर्ण एक ही वंश के उप-विभाग हो जाते हैं। फलतः उपवर्णों में परम्पर रोटी-बेटी-सम्बन्ध की रुकावट बंश या रक्त की पवित्रता को बनाये रखने के उद्देश्य से नहीं हो सकती । यदि वर्ण के अवान्तर-भेदों का आधार सुप्रजनन-शाम्त्र नहीं हो सकता, तो इस विवाद में भी कोई तथ्य नहीं हो सकता कि वर्णा का मूल सुप्रजनन-शास्त्र है ।

फिर यदि वर्ण-भेद का मूल सुप्रजनन हो, तो अन्तवर्णोय विवाह की रुकावट समझ में आ सकती है। परन्तु वर्णो और उन के अवान्तर-भदों के परस्पर सहभोज पर जो रुकावट लगाई गई है,उसका क्या उद्देश्य है ? सहभोज रक्त में छूत का सञ्चार नहीं कर सकता। इसलिए उससे न वंश का सुधार होता है और न बिगाड़ । इससे पता लगता है कि वर्ण-भेद का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं । जो लोग इसका आधार सुप्रजनन को जनाना चाहते हैं, वे उस बात का विज्ञान द्वारा समर्थन करने की चेष्टा कर रहे हैं, जो कि सर्वथा अवैज्ञानिक है। जब तक हमें वंश-परम्परा के नियमों का सुनिश्चित ज्ञान न हो, आज भी सुप्रजनन-शास्त्र क्रियात्मक रूप से सम्भव नहीं हो सकता । प्रोफेसर बेटसन अपनी पुस्तक