(Mendel's Principle of Herredity" ) में कहते
हैं:-“उच्चतर मानसिक गुणों के बाप से बेटे में जाने में कोई भी
ऐसी बात नहीं, जिससे यह कहा जा सके कि वे प्रेषण की किसी
एक पद्धति का अनुसरण करते हैं। अधिक सम्भव यह है कि क्या
ये गुण और क्या शारीरिक शक्तियों की अधिक ,निर्दिष्ट वृद्धियाँ
किसी उत्पत्ति सम्बन्धी तत्त्र की विद्यमानता की अपेक्षा बहु-
संख्यक हेतुओं के सन्निपतन का अधिक परिणाम होती हैं।"
यह कहना कि वर्ण-व्यवस्था सुप्रजनन-शास्त्र के अनुसार बनाई गई थी, दूसरे शब्दों में यह मान लेना है कि वर्तमान काल के हिन्दुओं के पूर्वजों को वंश-परम्परा (Heredity) का ज्ञान था, जो कि आधुनिक वैज्ञानिकों को भी नहीं है । वृक्ष अपने फल से पहचाना जाता है। यदि वर्ण-भेद सुप्रजनन (Eugenics) है, तो इसने किस प्रकार की नस्लें पैदा की है ? शारीरिक रूप से हिन्दु ठिगनों और बौनों की जाति है, जिनका न क़द है और न बल । यह एक ऐसी जाति हैं, जिसकी ९/१० वाँ भाग सैनिक सेवा के अयोग्य ठहराया जा चुका है। इससे पता लगता है कि वर्ण- व्यवस्था में आधुनिक वैज्ञानिकों के सुप्रजनन-शास्त्र का कुछ भी आधार नहीं । यह एक ऐसी सामाजिक पद्धति है, जिसमें हिन्दुओं के एक दुष्ट समाज का घमण्ई और स्वार्थपरता भरी पड़ी है । इन दुष्ट लोगों की सामाजिक स्थिति इतनी ऊँची थी और इनको ऐसा अधिकार प्राप्त था कि जिसमें वे वर्ण-व्यवस्था को चला मकने और अपने से छोटों पर लाद सकते थे।
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