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जाति-भेद का उच्छेद


वर्ण अपने को दूसरे वर्णों से अलग करने और पृथक दिखाने का ही प्रयत्न करता है। प्रत्येक वर्ण न केवल अपने ही भीतर खान-पान अहोर व्याह-शादी करता है, वरन् अपने लिए एक पार्थक्य-सूचक परिधान भी निर्धारित करता है । यदि यह बात नहीं, तो भारत के स्त्री-पुरुर्षों के परिधान की असंख्य रीतियों का, जिन्हें देख कर विदेशी पर्यटक हँसते हैं, और क्या कारण है ? वास्तव में आदर्श हिन्दू वही है,जो चूहे की भाँति अपने ही बिल में बन्द रहता है और दूसरों के साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध रखने को तैयार नहीं । जिसे समाज-शास्त्र की परिभाषा में "जाति की चेतना"((consciousness of kind ) कहा जाता है, उसका हिन्दुओं में सर्वथा अभाव है। हिन्दू अनुभव ही नहीं करते कि हम एक जाति हैं। प्रत्येक हिन्दू में जो चेतना पाई जाती है, वह उसके अपने वर्ण की चेतना (consciousness of caste ) है। इसी कारण हिन्दु एक समाज या एक राष्ट्र नहीं कहला सकते ।।

परन्तु अनेक भारतीय ऐसे हैं, जिन की देशभक्ति उन्हें यह स्वीकार करने की आज्ञा नहीं देती कि भारतीय कोई एक राष्ट्र नहीं, वरन् एक जनना का आकारहीन देर हैं। वे आग्रह करते हैं कि इस बाहर से दीग्वने वाली विभिन्नता के नीचे मौलिक एकता मौजूद है, जिस का प्रमाण यह है कि भारत के इस महाद्वीप में सर्वत्र हिन्दुओं के स्वभाव और रीतियाँ , विश्वास और विचार एक जैसे हैं। परन्तु फिर भी कोई मनुष्य इस परिणाम को स्वीकार नहीं कर सकता कि हिन्दुओं का एक समाज है।

हिन्दुओं को एक समान मानना समाज को बनाने वाली अविश्यक बातों को गलत समझना है । शारीरिक रूप से एक-दूसरे के निकट रहने में ही मनुष्य एक समान नहीं कहला सकते, नहीं‌