तो यह भी मानना पड़ेगा कि दूसरे मनुष्यों से कई सौ मील दूर
चले जाने से मनुष्य अपने समाज का सदस्य नहीं रह जाता। दूसरे,
स्वभावों और रीतियों, विश्वास और विचारों में सादृश्य का होना
मनुष्यों को एक समान बनाने के लिए पर्याप्त नहीं है। ईटों की
तरह बातों को एक से दूसरे तक पहुँचाया जा सकता है। इसी
प्रकार एक मनुष्य-समूह के स्वभाव और रीतियाँ, विश्वास और
विचार दूसरा मनुष्य-ममूह ले सकता है, जिस से दोनों में साद्दश्य
दीख सकता है। संस्कृति प्रसार द्वारा फैलती है। यही कारण है
जो हम विविध आदिम जातियों में, स्वभावों और रीतियों,
विश्वासों और विचारों के विषय में सादृश्य पाते हैं, यद्यपि वे
एक-दूसरे के पास नहीं रहतीं। परन्तु यह कोई नहीं कह सकता
क्यों कि उन में यह साद्दश्य था, इस लिए आदिम जातियों का
एक समाज था । समाज उन्हीं लोगों का बनना है, जिन के पास
वे चीजें होती हैं जिन पर उन सब का साझे का अधिकार
होता है। वैसी ही चीज़ रखना चीजों पर साझे का अधिकार
रखने से सर्वथा भिन्न बात है। एकमात्र रीति जिस से मनुष्य एक
दुसरे के साथ वस्तुओं पर साझे का अधिकार रख मकते हैं, वह
एक दूसरे के साथ सहचरता या मनोभावे का आदान-प्रदान है ।
दूसरे शब्दों में, समाज की अस्तित्व मनोभाव के अदान-प्रदान
द्वारा वरन आदान-प्रदान में ही रह सकता है ।
इसे तनिक अधिक स्पष्ट करना हो, तो कह सकते हैं कि मनुष्य का दूसरों के कार्यों के अनुकूल ढङ्ग से कार्य करना ही पर्याप्त नहीं । अनुरूप कर्म चाहे एक सदृश भी हो, वह मनुष्यों को इकट्ठा कर के समान बनाने के लिए पर्याप्त नहीं । इस का प्रमाण यह है कि यद्यपि हिन्दुओं के भिन्न-भिन्न वर्णों और उपवर्णों सब