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जातिभेद का उच्छेद


आदिम निवासियों के साथ जो वैदिक युग के धृणित अनार्यों के अवशिष्टांश हैं संसर्ग स्थापित कर के वह इसे खोने के लिए राज़ी नहीं हो सकता ।

यह बात नहीं कि हिन्दुओं को पतित मनुष्यों के प्रति कर्तव्य-बुद्धि सिखायी नहीं जा सकी । वरन् कठिनाई यह है कि कर्तव्य-बुद्धि चाहे कितनी भी अधिक क्यों न हो, वह हिन्दू को उस के वर्ण की रक्षा के कर्तव्य को दबाने में समर्थ नहीं बना सकती । इस लिए, हिन्दुओं ने अपनी सभ्यता के बीच आदिम निवासियों को जङ्गली क्यों बना रहने दिया, और इस के लिए उन्हें किसी प्रकार के अनुताप,खेद या लज्जा का अनुभव क्यों नहीं हुआ, इस का मूल कारण वर्ण-भेद ही है । हिन्दुओं ने यह नहीं अनुभव किया कि ये आदिम निवासी एक सुप्त भय का स्रोत हैं । यदि ये जङ्गली जङ्गली ही बने रहे, तो हो सकता है कि वे हिन्दुओं की कोई हानि न करे । परन्तु यदि अहिन्दुओं ने उन को मुधार कर अपने धर्म में मिला लिया, तो वे हिन्दुओं के शत्रुओं की सेना को बढ़ाने का कारण बन जायगे । यदि ऐसा हुआ, तो हिन्दुओं को अपने आप को और अपने वर्ण-भेद को धन्य- वाद देना पड़ेगा ।

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वर्ण-भेद द्वेष का मूल है

न केवल यही कि हिन्दुओं ने जङ्गलियों को सभ्य बनाने जैसे मानव-हित के काम के लिए कोई यत्न नहीं किया, वरन हिन्दुओं के ऊँचे वर्णों ने जान-बूझ कर अपने से छोटे वर्ण के