दूसरे हिन्दुओं को उन्नति कर के उच्च वर्ण के सांस्कृतिक समतल
पर पहुँचने से रोका है। मैं यहाँ दो उदाहरण देता हूँ, एक
सोनारों का और दूसरा पाठारे प्रभुओं का । दोनों जातियाँ महा-
राष्ट्र में बहुत प्रसिद्ध हैं। अपनी सामाजिक स्थिति को ऊँचा करने
की इच्छुक दूसरी बिरादरियों की तरह, ये दो बिरादरियाँ भी एक
समय ब्राह्मणों की कुछ रीतियों और स्वभाव ग्रहण करने का
यत्न कर रही थीं । सोनार अपने को दैवज्ञ ब्राह्मण कहते थे,
धोती की लाँग तह लगाकर बाँधते और अभिवादन में 'नमस्कार'
शब्द का प्रयोग करते थे । धोती को तह करके बाँधना और
'नमस्कार' कहना, ये दोनों रीतियाँ केवल ब्राह्मणों की ही थी ।
सुनारों का इस प्रकार अनुकरण करना और ब्राह्मण बनने का
यत्न करना बाह्मणों को बुरा लगा । पेशवाओं ने रीतियों को
ग्रहण करने के इस यत्न को सफलतापूर्वक दबा दिया। इतना ही
नहीं, उन्होंने बम्बई में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेटलमेण्ट की
कौन्सिल के प्रेजिडेण्ट से भी बम्बई में रहने वाले सोनारों के
नाम एक निषेधात्मक आझा निकलवा दी।
एक समय था, जब पाठारे प्रभुओं में विधवा-विवाह की प्रथा प्रचलित थी। विधवा-विवाह की प्रथा सामाजिक हीनता का चिह्न समझी जाती थी, विशेषतः इसलिए क्योंकि ब्राह्मणों में इसकी रिवाज नहीं था। अपनी जाति की सामाजिक स्थिति को ऊँचा करने के उद्देश्य से कुछ पाठारे प्रभुओं ने अपनी जाति में विधवा- विवाह की प्रथा को बन्द कर देना चाहा। इस पर जाति में दो दल हो गये, एक विधवा-विवाह के पक्ष में और दूसरा उसके विरुद्ध । पेशवाओं ने उस दल का पक्ष लिया, जो विधवा-विवाह के समर्थक थे और इस प्रकार पाठारे प्रभुओं को कार्यतः ब्राह्मणों