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जात-पाँत और शुद्धि


प्रचारक धर्म क्यों नहीं रहा ? मेरा उत्तर यह है। हिन्दू धर्म उस समय प्रचारक धर्म न रहा, जब हिन्दुओं में वर्ण-भेद उत्पन्न हो गया। वर्ण-भेद और प्रचार द्वारा विधर्मियों को अपने धर्म में, खपाना, दो परस्पर विरोधी बातें हैं। धर्मान्तर में केवल सिद्धान्तों और विश्वासों को हँसने का ही एक प्रश्न नहीं होता। धर्मान्तरित व्यक्ति को अपने समाज में स्थान देने का भी प्रश्न होता है और बहुत आवश्यक प्रश्न होता है। दूसरे धर्म से आने वाले को समाज में कहाँ रखा जाय ? उसे किस बिरादरी में जगह दी जाय ? यह एक ऐसा प्रश्न है, जो प्रत्येक ऐसे हिन्दू को हैरान करता है, जो विदेशियों और विधर्मियों को धर्मान्तर द्वारा हिन्दु बनाना चाहता है । वर्ण कोई क्लब नहीं, जिस में सब कोई सम्मिलित हो सके। जात-पाँत के नियमानुसार केवल उस जाति में जन्म लेने वाला ही उस जाति का माना जा सकता है। सव वर्ण या बिरादरियाँ स्वतन्त्र हैं। कहीं भी कोई ऐसा हाकिम मौजूद नहीं, जो किसी वर्ण को किसी नवागत को अपने सामाजिक जीवन में प्रविष्ट करने पर विवश कर सके । हिन्दू-समाज वर्णों और उपवर्णों का संग्रह-मात्र है, और प्रत्येक वर्ण और उपवर्ण एक ऐसा गठित सङ्घ है, जिस में बाहर से भीतर जाने का मार्ग बन्द है, इस लिए दूसरे धर्म से आने वाले के लिए उस में कोई स्थान नहीं। अतएव वर्ण-भेद ने ही हिन्दुओं को फैलने से और दूसरे धर्म वालों को अपने में खपाने से रोका है। जब तक वर्ण-भेद रहेंगे, हिन्दू धर्म प्रचारक धर्म नहीं बन सकेगा और "शुद्धि"-आन्दोलन एक मूर्खता और व्यर्थ चेष्टा- मात्र होगी।

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