चुपके से सहन कर लेता है । अप उन में, श्रीयुत मारिस के शब्दों
में, बड़ों को छोटों को रौंदते, सबलों को निर्बलों को पीटते, क्रूरों
को किसी से न डरते, दयालुओं को साहस न करते और बुद्धि-
मानों को परवा न करते हुए पाते हैं । सभी हिन्दू देवताओं के
क्षमाशील होते हुए भी हिन्दु में दलितों और अत्याचार-
पीड़ितों के दयनीय दशा किसी से छिपी नहीं । उदासीनता से
बढ़कर बुरा और कोई रोग नहीं हो सकता। हिन्दू इतने उदासीन
क्यों हैं ? मेरी राय में यह उदासीनता वर्ण-भेद का ही परिणाम
है। वर्ण-भेद ने किसी अच्छे काम के लिए भी सङ्गठन और
सहयोग को असम्भव बना दिया है।
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हिन्दुओं के आचार-शास्त्र पर वर्ण-भेद का प्रभाव बहुत खेदजनक हुआ है। वर्ण-भेद ने सार्वजनिक भाव को मार डाला है। वर्ण-भेद ने सार्वजनिक वदान्यता के भाव को नष्ट कर दिया है । वर्ण-भेद ने लोक-मत को असम्भव बना दिया है। एक हिन्दू की जनता उस का अपना वर्ग ही है । उस का उत्तरदायित्व उस के अपने ही वर्ग के प्रति है। उस की भक्ति उस के अपने व तक ही परिमित है। वर्ग-भेद ने सद्गुण को दबा दिया है और सदाचार को जकड़ दिया है । पात्र के लिए कोई सहानुभूति नहीं रही । गुणी के गुणों की कोई प्रशंसा नहीं । भूखे को दान नहीं दिया जाता। किसी को कष्ट में देख कर उस की सहायता का भाव नहीं उत्पन्न होता । दान होतो जरूर है, परन्तु वह अपने ही वर्ण से आरम्भ होकर अपने ही वर्ण के साथ समाप्त हो जाता है। सहानुभूति है, परन्तु दूसरे वर्णों के