लोगों के लिए नहीं। क्या कोई हिन्दू किसी बड़े और अच्छे मनुष्य
को अपना नेता स्वीकार करेगा और उस के पीछे चलेगा ?
महात्माजी को छोड़ दीजिये, इस का उत्तर यही है कि हिन्दू उसी
नेता के पीछे चलेगी, जो उस की अपनी जाति का है। एक ब्राह्मण
तभी नेता के पीछे चलेगा, यदि वह नेता ब्राह्मण है। इसी प्रकार
कायस्थ कायस्थ को और बनिया बनिये को नेता मानेगा । अपनी
जात-पाँत का विचार छोड़ कर मनुष्य के सद्गुणों की कद्र करने
की क्षमता हिन्दू में मौजूद नहों । सद्गुण की कद्र होती है, परन्तु
केवल उस समय, जब कि गुणी उस को अपनी जाति-बन्धु हो ।
सारी आचार-नीति जातीय नीति ( tribal morality ) हो
गयी है। मेरा जाति-भाई हो, चाहे वह ठीक कहता हो चाहे गलत;
मेरा जाति-बन्धु हो, चाहे अच्छा हो या बुरा । यह पुण्य का पक्ष
लेने या पाप का पक्ष न लेने की बात नहीं । यह जाति का पक्ष
लेने या न लेने की बात है। क्या हिन्दुओं ने अपने वर्णों और
उपवर्णों के हितार्थ अपने देश के विरुद्ध विश्वासघात नहीं
किया है ? ।
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आप पूछेगे कि यदि आप वर्ण-भेद नहीं चाहते, तो आप का आदर्श-समाज क्या है ? मेरा आदर्श एक ऐसा समाज है, जिस का आधार स्वाधीनता, समता और बन्धुता हो । क्यों ? बन्धुता पर क्या आपत्ति हो सकती है ? मुझे तो कोई सूझती नहीं । आदर्श समाज गतिशील होना चाहिए, वह ऐसे मार्गों से भरा होना चाहिए, जो एक भाग में होनेवाले परिवर्तन को दूसरे