भागों में ले जायें । आदर्श समाज में अनेक ऐसे हित होने चाहिएँ
जिन को जान-बूझ कर आदान-प्रदान हो और जिन में सभी
भाग लें । सङ्घ की दूसरी रीतियों के साथ बेरोक-टोक और
विभिन्न प्रकार से संसर्ग होना चाहिए। दूसरे शब्दों में, सामाजिक
धी-खिचड़ी होना आवश्यक है । यही बन्धुता है, इसी का दूसरा
नाम प्रजातन्त्र है । प्रजातन्त्र केवल शासन का ही एक रूप नहीं ।
यह मुख्यतः सङ्घबद्ध रहन-सहन की, मिल-जुल कर एक-दूसरे
को लेने-देने की रीति है । यह मूलतः अपने साथियों के प्रति
सम्मान और श्रद्धा का भाव है ।
क्या स्वाधीनता पर भी कोई आपत्ति हो सकती है ? आने-जाने की स्वतन्त्रता के अर्थों में, जीने और चलने-फिरने की खुली छुट्टी के अर्थों में, स्वाधीनता पर बहुत थोड़े लोग आपत्ति करेंगे । शरीर को स्वस्थ दशा में रखने के निमित्त आजीविको- पार्जन के लिए आवश्यक सामग्री, औज़ार और सम्पत्ति पर अधि- कार के अर्थों में स्वाधीनता पर किसी को कोई आपत्ति नहीं । फिर व्यक्ति को उसकी शक्तियों के योग्य और कार्यकारी प्रयोग द्वारा लाभान्वित होने की स्वाधीनता देने में क्यों आपत्ति की जाय ? वर्ण-व्यवस्था के पक्षपाती जो आने जाने, चलने फिरने, हिलने-डुलने, सम्पत्ति पर अधिकार रखने की स्वाधीनता पर आपत्ति नहीं करते, वे व्यक्ति की शक्तियों का उपयोग करने की, विशेषतः उसके अपने लिए कोई व्यवसाय चुनने की स्वतन्त्रता देने को तैयार नहीं । परन्तु इस प्रकार की स्वाधीनता पर आपत्ति करना दासता को चिर-स्थायी बनाना है। कारण यह कि दासता को अर्थ केवल अधीनता का कानून-सङ्गत रूप ही नहीं । इस का