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अहिन्दू और जात-पाँत


नहीं करते । वास्तव में जाति-बहिष्कार की भावना ही ईसाइयों और मुसलमानों के लिए एक अपरिचित सी बात है । परन्तु हिन्दुओं की अवस्था इससे सर्वथा भिन्न है। जात-पाँत को तोड़ डालने पर हिन्दू का बहिष्कृत हो जाना निश्चित है। इससे पता लगता है कि हिन्दुओं और अहिन्दुओं में जात-पाँत के महत्व के सम्बन्ध में कितना भारी अन्तर है । भिन्नता की यह दूसरी बात है।

इसके अतिरिक्त भिन्नता की एक तीसरी और अधिक मह- त्वपूर्ण बात भी है। अहिन्दुओं में जात-पाँत को कोई धार्मिक प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं । परन्तु हिन्दुओं में निश्चय ही इसे धार्मिक प्रतिष्ठा प्राप्त है। अहिन्दुओं में जात-पाँत एक प्रथा है, कोई पवित्र संस्था नहीं। उन्होंने इसको जन्म नहीं दिया । वे तो इसे एक पुराना रोग समझते हैं। वे जात-पाँत को कोई धार्मिक सिद्धान्त नहीं मानते । धर्म हिन्दुओं को वाध्य करता है कि वे वर्णों और उपवर्णों के पृथक्त्व को सद्गुण समझे। परन्तु धर्म अहिन्दुओं को जात-पाँत के प्रति यही भाव रखने को बाध्य नहीं करता । यदि हिन्दू जात-पाँत को तोड़ना चाहते हैं, तो उनका धर्म रास्ते में आ खड़ा होता है। इस बात को जानने की कुछ भी परवा न करके कि जात-पाँत को अहिन्दुओं के जीवन में क्या स्थान है। और उनमें ऐसे “आङ्गिक सूत्र' भी हैं जो जात-पाँत की भावना को बिरादरी या समाज की भावना के नीचे दबा देते हैं, अहिन्दुओं में केवल जात-पाँत का अस्तित्व देख कर ही अपने को ढाढ़स देना एक भयानके भ्रम है । हिन्दुओं को जितनी जल्दी इस भ्रम से छुटकारा मिले, उतना ही अच्छा है।

एक दल ऐसा है, जो मानता ही नहीं कि वर्ण-भेद ने हिन्दुओं की कुछ हानि की है, इसलिए वह इस पर विचार करने की कोई