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जाति-भेद का उच्छेद


आवश्यकता ही नहीं समझता। ऐसे हिन्दू इसी बात में सान्त्वना पा रहे हैं कि हिन्दु अभी तक बचे रहे हैं। वे इस बात को अपने जीवित रहने की योग्यता का प्रमाण समझते हैं। इस दृष्टिकोण को प्रोफेसर एस० राधा कृष्णन ने अपनी *Hindu View of Life नामक पुस्तक में भली भाँति प्रकट किया है। हिन्दू-धर्म के सम्बन्ध में वे कहते हैं- “खुद हिन्दू सभ्यता भी अल्पजीवी नहीं हुई। इस के ऐतिहासिक लेख चार हजार वर्ष से भी अधिक पुराने हैं। तब भी यह सभ्यता की ऐसी अवस्था को पहुँच चुकी थी जिस ने अपनी अक्षुण्ण गति वर्तमान काल तक जारी रखी है, यद्यपि यह बीच में कभी कभी मन्द और अचल भी हो जाती रही है। यह आध्यात्मिक विचार और अनुभव के चार पाँच से भी अधिक सहस्राब्दों का बोझ और दबाव सहन कर चुकी है । यद्यपि ऐतिहा- सिक काल के प्रारम्भ से ही विभिन्न वंशों और संस्कृतियों के लोग भारत में आते रहे हैं, तो भी हिन्दू धर्म अपने प्राधान्य को बनाए रख सका है। यहाँ तक कि विधर्मियों को अपने में मिला लेने वाले धर्म भी, अपने पीछे राजनीतिक शक्ति रखते हुए भी, हिन्दुओं की एक बड़ी बहुसंख्या को तंग करके अपने विचारों को नहीं बना सके। हिन्दू-संस्कृति में कोई ऐसी जीवनी-शक्ति है, जो कई दूसरी अधिक प्रबल धाराओं को मिली नहीं प्रतीत होती । जिस प्रकार यह देखने के लिए कि पेड़ में अभी रस है या नहीं, उसे काट कर देखना व्यर्थ है, वैसे ही हिन्दू-धर्म की चीर-फाड़ की भी अधिक आवश्यकता नहीं ।

प्रोफेसर राधाकृष्णन् जो कुछ कहते हैं, उस की गम्भीरता अनेक लोगों के हृदयों पर अङ्कित कर देने के लिए प्रोफेसर महो- दय का नाम ही पर्याप्त है। परन्तु हमें अपने मन की बात कह