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अहिन्दू और जात-पाँत


देने में सोच नहीं करना चाहिए। हमें डर है कि उन का कथन कहीं इस दूषित तर्क का आधार न बन जाय कि अब तक जीता बचा रहना भविष्य में भी जीते रहने की योग्यता का प्रमाण है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रश्न यह नहीं कि कोई समाज जीता। है या मरता है; प्रश्न यह है कि वह किस अवस्था में जीता है । बच कर जीते रहने के विभिन्न प्रकार हैं। पर वे सब समान रूप से प्रतिष्ठित नहीं । व्यक्ति के लिए और समाज के लिए केवल जीने और उपयुक्त रीति से जीने के बीच एक बड़ा अन्तर है। संग्राम में लड़ना और कीर्ति के साथ जीना एक प्रकार है । रण में पीठ दिखाना, अधीनता स्वीकार करके बंदी का जीवन व्यतीत करना भी बचे रहने का एक प्रकार है । हिन्दू के लिए इस बात से अपने को ढाढ़स देना व्यर्थ है कि वह और उस की जाति बच कर जीती रही है। हिन्दू को जिस बात पर विचार करना चाहिए वह यह है कि वे बच कर किस अवस्था में जीते रहे हैं। यदि वह इस पर विचार करेगा तो मुझे निश्चय है कि वह केवल बच कर जीते रहने पर ही गर्व करना छोड़ देगा । हिन्दुओं का जीवन निरन्तर पराजय का जीवन रहा है । जो चीज़ उन्हें चिरस्थायी जीवन प्रतीत होता है वह चिरस्थायी रूप से जीना नहीं है वरन् वास्तव में एक ऐसा जीवन है जो चिरस्थायी रूप से नष्ट हो रहा है। यह बच कर जीते रहने की एक ऐसी रीति है, जिस के लिए प्रत्येक शुद्ध विचार वाले हिन्दू को, जो सत्य को स्वीकार करने से नहीं डरता, लज्जा का अनुभव होगा ।