पाँत एक भावना है, मन की एक अवस्था है। इस लिए जात-पाँत
तोड़ने का अर्थ किसी स्थूल रुकावट को नष्ट करना नहीं । इसका
अर्थ भावना को बदलना है । जाति-भेद बुरा हो सकता है,
जाति-भेद ऐसा बुरा आचरण करा सकता है जो मनुष्य के प्रति
मनुष्य की पाशविकता कहला सकती है । परन्तु इसके साथ ही
यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि हिन्दू जाति-भेद को इस लिए
नहीं मानते कि वे क्रूर हैं या उनके मस्तिष्क में कुछ खराबी है।
वे जाति-भेद के इस लिए पाबंद हैं कि उनको धर्म प्राणों से भी
प्यारा है । जाति-भेद को मानने में लोगों की भूल नहीं । भूल
उन धर्म-ग्रन्थों की है जिन्होंने यह भावना उनमें उत्पन्न की है ।
यदि यह बात ठीक हो तो जिस शत्रु के साथ हमें लड़ना है वह
जाति-भेद को मानने वाले लोग नहीं, वरन् वे शास्त्र हैं जो उन्हें
इस वर्ण-भेद का धर्मोपदेश देते हैं। जाति-भेद को तोड़कर रोटी-
बेटी-सम्बन्ध न करने के लिए लोगों की हैंसी उड़ाना और आलो-
चना करना अथवा कभी कभी अन्तर्जातीय सहभोज तथा जात-
पाँत तोड़क विवाह कर लेना मनोवाञ्छित उद्देश्य की प्राप्ति का
एक व्यर्थ साधन है। सच्चा इलाज तो उन शास्त्री की पवित्रता में।
लोगों का विश्वास नष्ट करना है। यदि उन शास्त्रां पर लोगों का
विश्वास बना रहेगा तो आपको सफलता की आशा कैसे हो
सकती है ? शास्त्रों को प्रमाण मानने से इनकार न करना, उनकी
पवित्रता और विधानों में लोगो का विश्वास बना रहने देना, और
साथ ही उनके कर्म को अयुक्तियुक्त और पाशविक बता कर उन्हें ।
दोष देना एवं उनकी आलोचना करना सामाजिक सुधार की एक
बहुत ही असंगत रीति है ।
जो सुधारक अस्पृश्यता दूर करने का यत्न कर रहे हैं, जिनमें