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जाति-भेद का उच्छेद


रख दिया है। प्रत्येक जाति को इस बात का अभिमान और ढाढ़स है कि जातियों के क्रम में मैं किसी दूसरी जाति से ऊपर हैं। इस क्रम-विन्यास के बाहिरी चिन्ह के रूप में सामाजिक और धार्मिक अधिकारों का भी क्रम-विन्यास है। इन अधिकारों को अष्टाधिकार और संस्कार कहते हैं । किसी जाति का पद जितना ऊँचा है उस के अधिकारों की संख्या उतनी ही अधिक है, और जितना पद नीचा है उतनी ही उनकी संख्या कम है। अब यह क्रम-विन्यास, यह जातियों की श्रृंखला सब लोगों को मिल कर जाति-भेद के विरुद्ध संगठित नहीं होने देती । यदि कोई जाति अपने से ऊपर वाली जाति के साथ रोटी- बेटी-सम्बन्ध के अधिकार का दावा करती है, तो धूर्त्त लोग जब उसे कहते हैं कि तुम्हें भी अपने से छोटी जातियों के साथ रोटी- बेटी-सम्बन्ध करना पड़ेगा तो उसे तत्काल चुप हो जाना पड़ता है।

सभी जाति-भेद के दास हैं। परन्तु सभी दासों को एक समान दुःख नहीं । आर्थिक क्रान्ति लाने के उद्देश्य से सर्वहारा मनुष्य को उकसाने के लिए कार्ल मार्कस ने उन से कहा था, इस क्रान्ति से “तुम्हारी हथकड़ियाँ कट जाने के सिवाय तुम्हारी और कोई हानि नहीं होगी ।" विभिन्न जातियों में जिस चलाकी से सामाजिक और धार्मिक अधिकार बाँटे गये हैं, जिससे किसी को कम मिले हैं और किसी को जियादा, उसको देखते हुए आप हिन्दुओं को जाति-भेद के विरुद्ध भड़काने के लिए उसी रणनाद का उपयोग नहीं कर सकते जिस का कार्ल मार्कस ने किया था । जाति-भेद तो एक राज्य के भीतर दूसरा राज्य है । जाति-भेद मिटने से कुछ जातियों के अधिकार और प्रभुता की अधिक हानि होगी और कुछ की कम । इस लिए जाति-भेद के दुर्ग पर