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जाति-भेद का उच्छेद


(५) आई-सी-ऐस की तरह पुरोहितों की संख्या भी राज्य की आवश्यकता के अनुसार राज नियम द्वारा परिमित कर दी जाय ।

कुछ लोगों को शायद यह बात बड़ी विचित्र जान पड़ेगी। परन्तु इस में क्रान्तिकारी कुछ भी नहीं। भारत में प्रत्येक व्यवसाय नियन्त्रित है। इन्जीनियरों को पहले दक्षता दिखलानी पड़ती है, डाक्टरों को पहले दक्षता दिखलानी पड़ती है, वकीलों को पहले दक्षता दिखलानी पड़ती है, इसके बाद ही उन्हें अपने व्यवसाय की प्रैक्टिस करने की आज्ञा मिलती है। अपने सारे कार्यकाल में उन्हें न केवल देश के दीवानी और फौजदारी कानून का ही पालन करना पड़ता है वरन् उसके साथ उन के व्यवसाय के लिए निर्धारित विशेष सदाचार का भी पालन करना पड़ता है। पुरोहित ही एक ऐसा व्यवसाय है जिस में दक्षता की आवश्यकता नहीं। हिन्दू- पुरोहित का व्यवसाय ही एक ऐसा व्यवसाय है जो किसी विधान के अधीन नहीं । मानसिक रूप से पुरोहित बेशक भौंदु हो, शारीरिक रूप से वह बेशक उपदंश और प्रमेह जैसे गन्दे रोगों से पीड़ित हो, सदाचार की दृष्टि से वह बेशक गया-वीता हो, वह पवित्र संस्कार कराने, हिन्दू-देवालय की पवित्र से पवित्र जगह में प्रवेश करने, और देवता की पूजा करने योग्य समझा जाता है। हिन्दुओं में यह सब इस लिए सम्भव है कि पुरोहित के लिए पुरोहितों के कुटुम्ब में जन्म लेना ही पर्याप्त है । यह सारी बात घृणा के योग्य है और इस का कारण यह है कि हिन्दुओं में पुरोहित वर्ग न तो राजनियम के अधीन है और न सदाचार के । यह अपना कोई कर्तव्य नहीं समझता । यह तो केवल अपने अधि- कार और प्रभुता ही जानता है । यह एक ऐसा अनिष्टकारी जन्तु है जो जगदीश्वर ने जनता की मानसिक और नैतिक अधोगति के