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जातिभेद का उच्छेद

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हिन्दुओं के विचारार्थ कुछ प्रश्न

अन्त में हिन्दू जाति के विचारार्थं मैं कुछ प्रश्न रखता हूँ:--

१-- हिन्दु को सोचना चाहिए कि क्या मनुष्य-विज्ञान के इस नम्र सिद्धांत को ही ग्रहण कर लेना पर्याप्त है कि संसार के विभिन्न लोगों में पाये जाने वाले विश्वासों, स्वभावों, सदाचारों और जीवन के दृष्टिकोणों के विषय में सिवा इस के कि वे बहुधा एक दूमरे से भिन्न होते हैं और कुछ कहने की आवश्यकता नहीं; या क्या इस बात को मालूम करने का यत्न करने की आवश्यकता नहीं कि किस प्रकार के नैतिक चरित्र, विश्वास, स्वभाव और दृष्टिकोण ने सब से उत्तम काम दिया है और जिन में यह मौजूद थे उन्हें बढ़ने-फूलने, मज़बूत बनने, पृथ्वी को बसाने और उस पर राज्य करने में समर्थ बनाया है।

प्रोफेसर कार्वर कहते हैं"नैतिक पसन्दगी और ना- पसन्दगी की सङ्गठित व्यञ्जना के रूप में नैतिक चरित्र और धर्म जीवन-संग्राम में रक्षा और आक्रमण के वैसे ही सच्चे शस्त्र समझे जाने चाहिएँ जैसे कि दाँत और पञ्जे, सींग और छल्ले, पोस्तीन और रोएँ हैं। जो सामाजिक समूह, मण्डली, जाति या राष्ट्र नीति- शास्त्र की अव्यवहार्य योजना बना लेता है, या जिस के भीतर वे सामाजिक काम, जो इसे निर्बल और बच कर जीते रहने के अयोग्य बनाते हैं, नित्य पसन्द किए जाते हैं, और इस के विप- रीत, जो उसे सबल और विस्तार के योग्य बना सकते हैं, नित्य नापसन्द किए जाते हैं, वह अन्ततः मिट जाता है। यह पसन्दगी और नापसन्दगी के स्वभाव ही हैं ( यह धर्म और