पृष्ठ:जातिवाद का उच्छेद - भीम राव अंबेडकर.pdf/८७

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अहितकर प्रभाव होना स्वाभाविक है, और इस आधार पर बाधा देना कि वर और वधू एक जाति के नहीं, एक नही, अनेक प्रकार से अनिष्ट- कर हैं। वे जाति-पाति की कोठरियों को तंग करते हैं। इससे अपने ही अंदर संतान पैदा करने की क्रिया निरंतर जारी रहती है, और सदोष, असहाय और निस्तेज संतान उत्पन्न होती है ।

बचपन के विवाह और विधवाओं को निकाल देने,स्त्रियों को बेचने, खरीदने, बदला करने, यहाँ तक कि अस्थायी पत्नियों के रूप में किराए पर लेने-जैसी बुराइयों का कारण यही है। इनसे जातियाँ, जिनमें कई इतनी छोटी है कि उनमें केवल आठ व्यक्ति है, सदा के लिये बना रहती है। ये जतियाँ व्यभिचार के विवाहो. स्त्रियों की संख्या अधिक है वहाँ एक पुरुष के अनेक स्त्रियों करने, और जहाँ लङकियों की कमी है, वहाँ गृह-हीन व्यभिचार के जीवन का कारण होती है। ये और दूसरी बुराइयाँ एक दूसरी पर क्रिया तथा प्रतिक्रिया करती हैं, और सब बुराइयाँ पुष्ट होकर और बुराइयों को बढ़ाती हैं।

वर्तमान कानून में परिवर्तन की आवश्यकता अनेक बोग अनुभव कर रहे है। कट्टर-से-कट्टर सनातनी भी जानते है कि अपनी जाति के भीतर अपने पुत्र और पुत्रियों के लिये योग्य कन्या और वर मिलना बहुधा कितना कठिन होता है, और अनमेल विवाहों के कारण किस प्रकार पति-पनी अपने वैवाहिक कर्तव्यों का परित्याग कर देते है, कैसे विपत्तियाँ और सामाजिक दुःख उत्पन्न होते हैं, किस प्रकार बहन और माई में अपने बच्चों के लिये ऐसी कन्या या वर पाने के लिये प्रतिद्वंद्विता शुरू हो जाती है, और उनमें झगड़े खड़े हो जाने से रे आयु-भर के लिये एक दूसरे क शत्रु बन जाते हैं, किस प्रकार रँडचे या बड़ी अवस्था के पुरुष या तो छोटी बच्चियों से विवाह कर लेते है या अविवाहित राते हुए स्वस्थ नैतिक जीवन के मार्ग से भटक जाते हैं। अपने इस अनाचार का तो बुरा प्रभाव उनके बच्चों तथा दर्द-गिर्द के