पृष्ठ:जातिवाद का उच्छेद - भीम राव अंबेडकर.pdf/९५

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की स्त्री का किसी भी दूसरी जाति के हिंदू के साथ गुण, कर्म और स्वभाव की अनुकूलता से होनेवाला विवाह एक निष्पक्ष मनुष्य की दृष्टि में व्यभिचार नहीं कहला सकता, यदि वे दोनों सदाचारी हैं और सद्भाव से विवाह करते हैं।

आक्षेप—यह जो कहा जाता है कि जाति-पाँति से द्वेष और वैर-भाव बढ़ता है, इस संबंध में मेरा यह कहना है कि पहले बड़े और छोटे, अमीर और गरीब, ऊँचे और नीचे के भेदों को उड़ा लो, तब कहना कि जाति पाँति के भेद को उड़ा दो। सब राजनीतिक और सामाजिक कानूनों के अनुसार अमीर मनुष्य का निकम्मा और अयोग्य पुत्र उसकी संपत्ति का वारिस नहीं ठहराया जायगा, बल्कि वह संपत्ति किसी पड़ोसी के योग्य पुत्र को दे दी जायगी, तब कहना कि ब्राह्मण का पुत्र ब्राह्मण नहीं और कि शुद्र के सुयाग्य पुत्र को ऊँचा करके ब्राह्मण के अयोग्य पुत्र के सिर पर रख दिया जाय सब कोई जानता है कि जिस नीच जाति के मुहताज मनुष्य को तुम एक रुपया दो, परंतु उसका छुआ हुआा अन्न-जल न ग्रहण करो, वह तुम्हारी उस दशा की अपेक्षा अधिक कृतज्ञ होगा जब तुम उसकी सहायता के लिये दो तो कुछ नहीं, पर उसके हाथ में लेकर खा-पी लो।

धर्म के सिद्धांत हिंदू को बताते हैं कि सब प्राणी तुम्हारा अपना ही दूसरा रूप है (आत्मवत् सर्वभूतेष)। इससे ब्राह्मण और चमार को एक दूसरे से प्रेम करने और नैतिक दृषि से एक दूसरे को भाई समझने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती, चाहे वे उन कारणों से परस्पर विवाह न करें जो सामाजिक रूप से उतने ही प्रबल हैं जितने कि वे अमीर की गरीब इतना दूर और इतना निर्दयतापूर्वक अलग रखते हैं। परंतु जाति-पाँति कभी धन के अधीन नहीं हुई। सत्य के समाने, परमेश्वर के सामने, सनातन ब्रह्म के सामने, न जाति-पाँति का, और न संपत्ति, स्थिति या पद का कोई भेद हो