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प्रेम खंड

(११) प्रेम खंड

अहुठ हाथ तन सरवर, हिया कवँल तेहि माँह।
नैनहिं जानहु नीयरे, कर पहुँचय औगाह॥३॥

सबन्ह कहा मन समुझहु राजा। काल सेंति जूझ न छाजा॥
तासों जूझ जात जो जीता। जानत कृष्ण तजा गोपीता॥
औ न नेह काह सौं कीजै। नाँव मिटै, काहे जिउ दीजै॥
पहिले सुख नेहहिं जब जोरा। पुनि होइ कठिन निबाहत औरा॥
अहुठ हाथ तन जैस सुमेरू। पहुँचि न जाइ परा तस फेरू॥
ज्ञान दिस्टि सौं जाइ पहूँचा। पेम अदिस्ट गगन तें ऊँचा॥
धुव तें ऊँच पेम-धुव ऊआ। सिर देइ पाँव देह सो छूआ॥

तुम राजा औ सुखिया, करहु राज सुख भोग।
एहि रे पंथ सो पहुँचे। सहै जो दुःख वियोग

सुऐ कहा मन बूझहु राजा। करव पिरीत कठिन है काजा॥
तुम राजा जेई घर पोई। कवँल न भेंटेउ-भेंटेउ कोई॥
जानहिं भौंर जौ तेहि पथ लूट। जीउ दीन्ह औ दिएहु न छूटे॥
कठिन आहि सिंघल कर राजू। पाइय नाहिं जूझ कर साजू॥
ओहि पथ जाइ जो होइ उदासी। जोगी, जती, तपा, सन्यासी॥
भोग किए जौ पावत भोगू। तजि सो भोग कोइ करत न जोगू॥
तुम राजा चाहहु सुख पावा। भोगहि जोग करत नहिं भावा॥

साधन्ह सिद्धि न पाइय, जौ लगि सधै न तप्प।
सो पै जानै वापुरा, करै जो सीस कलप्प॥५॥

का भा जोग कथनि के कथे। निकसै घिउ न बिना दधि मथे॥
जौ लहि आप हेराइ न कोई। तौ लहि हेरत पाव न सोई॥
पेम पहार कठिन विधि गढ़ा। सो पै चढ़ै जो सिर सौं चढ़ा॥
पंथ सूरि के उठा अँकूरू। चोर चढ़ै, की चढ़ मंसूरू॥
तू राजा का पहिरसि कंथा। तोरे घरहि मांक्ष दस पंथा॥
काम,क्रोध,तिस्ना, मद,माया। पाँचौ चोर न छाँड़हिं काया॥
नवौ सेंध तिन्ह कै दिठियारा। घर मूसहिं निसि, को उजियारा॥

 

अहुठ = साढ़े तीन (सं० अर्द्ध-चतुर्थ, कल्पित रूप 'आध्युष्ठ', प्रा० अड्ढुट्ठ); जैसे—कबहूं तो अहुट परग करी वसुधा, कबहुँ देहरी उलँधि न जानी॥ सूर। 'सरवर'—पाठांतर 'तरिवर'।

(४) काल सेंति = काल से (प्रा० वि० संतो)। अहुठ = दे० ३। ध्रुव = ध्रुव। सिर देइ छूआ = सिर काटकर उसपर पैर रखकर खड़ा हो; जैसे—'सोस उतारै भूई धरै तापर राखै पाँव। दास कबीरा यों कहै ऐसा होय तो आव॥'

(५) पोई = पकाई हुई। तुम...पोई = अब तक पकी पकाई खाई अर्थात् आाराम चैन से रहे।

साधन्ह = केवल साध या इच्छा से। कलप करै = काट डाले (सं० क्लप्त)।

(६) सूरि = सूली। दिठियार = देख में, देखा हुआ। मूसि जाहिं = चुरा ले