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सात समुद्र खंड


सतएँ समुद मानसर आए। मन जो कीन्ह साहस, सिधि पाए॥
देखि मानसर रूप सोहाबा। हिय हुलास पुरइनि होइ छावा॥
गा अँधियार, रैनि ससि छूटी। भा भिनसार किरिन रवि फूटी॥
‘अस्ति अस्ति’ सब साथी बोले। अंध जो अहे नैन विधि खोले॥
कवँल विगस तब बिहँसी देहीं। भौंर दसन होइ के रस लेहीं॥
हँसहि हंस औ करहि किरीरा। चुनहिं रतन मुकुताहल हीरा॥
जो अस आव साजि तप जोगू। पूजै आस, मान रस भोगू॥

भौंर जो मनसा मानसर, लीन्ह कँवलरस आइ।
घुन जो हियाव न कै सका, भूर काठ तस खाइ॥१०॥


 

(१०) पुरइनि = कमल का पत्ता (सं० पुटकिनी, प्रा० पुड़इणी)। रैनिमसि = रात की स्याही। ‘अस्ति अस्ति’ = जिस सिंहलद्वीप के लियें इतना तप साधा वह वास्तव में है, अध्यात्मपक्ष में ‘ईश्वर या परलोक है।’ किरीरा = क्रीड़ा। मुकुताहल = मुक्ताफल। मनसा = मन में संकल्प किया। हियाव = जीवट, साहस।