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सिंघलदीप खंड


तहाँ देखु पदमावति रामा। भौंर न जाइ, न पंखी नामा॥
अब तोहि देऊँ सिद्धि एक जोगू। पहिले दरस होइ, तब भोगू॥
कंचन मेरु देखाव सो जहाँ। महादेव कर मंडप तहाँ॥
ओहि क खंड जस परवत मेरू। मेरुहि लागि होइ अति फेरू॥
माघ मास, पाछिल पछ लागें। सिरी पंचिमी होइहि आगे॥
उधघरिहि महादेव कर बारू। पूजिहि जाइ सकल संसारू॥
पदमावति पुनि पूजै आवा। होइहि एहि मिस दीठि मेरावा॥

तुम्ह गौनहु ओहि मंडप, हौं पदमावति पास।
पूजै आइ बसंत जब, तब पूजै मन आस॥४॥

राजै कहा दरस जौं पावौं। परबत काह, गगन कहूँ धावौं॥
जेंहि परवत पर दरसन लहना। सिर सौं चढ़ौं, पाँव का कहना॥
मोहूँ भावै ऊचे ठाऊं। ऊँचे लेउँ पिरीतम नाऊँ॥
पुरुषहि चाहिय ऊँच हियाऊ। दिन दिन ऊँचे राखे पाऊ॥
सदा ऊंच पै सेइय बारा। ऊँचे सौं कीजिय वेवहारा॥
ऊँचे चढ़ैं, ऊंच खँड सूझा। ऊंचे पास ऊँच मति बूझा॥
ऊँचे सँग संगति निति कीजै। ऊँचे काज जीउ पुनि दीजे॥

दिन दिन ऊँच होइ सो, जेहि ऊँचे पर चाउ।
ऊँचे चढ़त जो खसि परै, ऊँच न छाँड़िय काउ॥५॥

हीरामनि देह बचा कहानी। चला जहाँ पदमावति रानी॥
राजा चला सँवरि सो लता। परबत कहूँ जो चला परबता॥
का परबत चढ़ि देखै राजा। ऊँच मंडप सोने सब साजा॥
अमृत सदाफर फरे अपूरी ।औ तहँ लागि सजीवन मूरी॥
चौमुख मंडप चहूँ केवारा। बैठ देवता चहूँ दुवारा॥
भीतर मँडप चारि खँभ लागे। जिन्ह वै छुए पाप तिन्ह भागें॥
संख घंट घन बाजहिं सोई। औ बहु होम जाप तहँँ होई॥

महादेव कर मंडप, जग मानस तहँ आव।
जस हींछा मन जेहि के, सो तैसे फल पाव॥६॥


 

(४) पछ = पक्ष। उघरिहि = खुलेगा। बारू = बार, द्वार। दीठि मेरावा = परस्पर दर्शन। (५) वूझा = बूझ, समझता है। खसि परै = गिर पड़े। (६) बचा कहानी = वचन और व्यवस्था। लता = पद्मलता, पद्मावती। परबता = सुआ (सुए का प्यार का नाम)। का देखै = क्या देखता है कि। हींछा = इच्छा।