पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३००

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११८
पदमावत

११८ । जोगिन्ह बहुत छंद न आराहीं । गेंद सेवती जैस पराहीं ॥ परहि भूमि पर होइ कचूरू । परंहि कदलि पर होइ कपूरू । परहि समुद्र खार जल श्रोहो। परंहि सीप तौ मोती होहीं । परहि मेरु पर मृत होई। परहि नागमुख विष होइ सोई ॥ जोगी भौंर निर ए दो। के हि प्रापन भए ? कहै जौ कोछ एक ठाँव ए थिर न रहाहीं। रस लेइ खेलि घनत कह जाहीं ॥ हो गृही पुनि होइ उदासी। अंत काल दूबौ बिसवासी ॥ तेहि सीं नेह को दिढ़ करै ? रहह न एक देस । जोगो, भौर, भिखारीइन्ह सों दूर देस ॥ २१ ॥ थल थल नग न न होहि जेहि जोती। जल जल सीप उपनहि मोती। बन बन बिरिछ न चंदन होई। तन तन बिरह न उपनै सोई ॥ जेहि उपना सो औौटि मरि गयऊ। जनम निनार न कबहूँ भएऊ जल अंबुजरवि रहे नकासा। जी’ इन्ह प्रीति जानु एक पासा जोगी भर जो थिर न रहाहों । जेहि खोजह तेहि पावह नाहीं मैं तोहि पायतें प्रापन जोऊ। डि सेवाति न मानहि पीऊ । भौंर मालती मिले जौ आाई। सो तजि मान फल कित जाई ? ॥ चंपा प्रीति न भरहदिन दिन नागरि बास । भर जो पावे मालती, मुएल न डे पास ॥ २२ । ऐसे राजकुंवर नहीं मानीं। खेल सारि पाँसा तब जानों ॥ काँचे बारह परा जो पाँसा। पाके पैत परी तन् रासा ॥' है न थाठ अठारह भाखा। सोरह सतरह रहें त राखा । सत जो धरे सो खेलनहारा। ढारि इगारह जाइ न मारा ॥ त " लीन्हे आासि मन दूवा । प्रो जुग सारि चहसि पुनि छूवा। लौं नव नेह रचीं तोहि पाहाँ । दसवें दावं तोरे हि माहा । तो चौपर खेल करि हिया। जौ तरहल होइ सौतिया ॥ जेहि मिलि बिठुरन औौ तपनि, अंत होइ जौ नित । तेहि मिलि गंजन को सहै ? बरु बिनु मिले निचित ।२३ (२१) प्रोराही = चुकते हैं । छंद == छल, चाल । = हलदा तरह का एक पौधा । दूरि देस = दूर हो से प्रणाम ? (२२) न मानहि कचूर की पीछ= दूसरा जल नहीं पोता। नागरि = अधिक। (२३) सारी = गोटी। पंत == दांव । रास = ठीक । सत = (क) सात का दावें । (ख) सत्य । इगारह = (क) दस इंद्रिया और मन । (ख) ग्यारह का दाँव । दूवा। दबधा। (ख) दो। जग सारी (क) दो गोटियाँ, (ख) कुच । सदखें दाँव (क) दसवाँ दाँव। (ख) अंत तक तिया, एक दाँव। (खसपत्नी पड़ा हुया । सौतिया = (क) ) । गजन =नाश, दुःख । । १. पाठांतर-काँटें बारह बार फिरासी। पाँके पौ फिर थिर न रहासी ॥