पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३०१

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पदमावती रत्नसेन भेंट खंड ११६ ।। बोलीं रानि ! वचन सुन साँचा। पुरुष क बोल सपथ अ बाधा ॥ यह मन लाए तोहि अर्स, नारी दिन तुइ पासा औौ निसि सारी ॥ पौ परि बारहि बार मनाएगें। सिर स खेलि पैत जिउ लाएछ ॥ अब चौक पंज ते बाँची । तुम्हू बिच गोट न आवहि कची । पाकि उठाए* ग्रास करीता। हौं जिउ तोहि हारा, तुम जोता ॥ मिलि के जग नहिं होह निनारी। कहाँ बोच दूती देनिहारी अब जिउ जनम जनम तोहि पासा। चढ़ई जोगग्राएड़े कबिलासा । ॥ जाकर जीव बसे जेहि, तेहि पुनि ताकर टेक कनक सोहाग न बिखू, श्रीटि मिले होइ एक ।२४। विहंसी धनि सुनि । क सत बातानिचय तु मार रग राता ।। निचय भर कंवल ‘रस रसा। जो हि मन सों मन ॥ तेहि वसा जब हीरामन भए स देसी। तुम्ह हुत हैंडप गइ, परदेसी तोर रूप तस देखेगें लोना। जन, जोगी ! तू मे लेसि टोना ॥ रूप बैसाई सिधि टिका जो दिस्टि कमाई। पारंहि मेलि भुगुति देइ कहें मैं तोहि दोठा। कंवल नैन होइ भौंर बईठा ॥ नैन “, न पुहुप, तू अलि भा सभी। रहा बेधि अतउड़ा लोभो । जाकर आास होइ जेहि, तेहि पुनि ताकरि प्रासं। भर जो दाधा डैवल कहें, कस न पाव सो बास ? ।।२५। कौन मोहन दतें हुति तोहो। जो तोहि विथा सो उपनो मोही। बिन जल मोन तफ जस जीऊ। चातकि भइडें कहत पिड पी ॥ जरि विरह जस दीपक बातो। पंथ जोहत भइ सोप सेवातो ॥ डाढ़ि डाढ़ि जिमि कोइल भई। भइकें चकोरि, नींद निसि गई ॥ तोरे पेम ’ पेम मो. 'भए। राता हेम अगिनि जिनि तएक । रवि परगासे केंवल बिगासा। नाहि त कित मधुकरकित बासा। तास कौन Jतरपट, जो अस पीतम पीड । नेवछावरि तन, मन , जोउ ।। ग्रब सागें जोवन।२६ (२४) बाचा प्रतिज्ञा पैत ने । लाएड == दाँव पर लगाया। चौक पंज (क) चोका पंजा ) कपट। दाँव। (खछल , छका पंजातुम्ह बिचौंकाँचो= कच्ची गोटी तुम्हारे बच नहीं पड़ सकतो । पाकि - पक्की गोटो । जुग निनारा होना=(क) चौसर में जुग फूटना । (ख) जोड़ा अलग होता। कहाँ बाच दोहरी = मध्यस्थ होनेवालो इतो को कहाँ आवश्यकता रह जाती है । (२५) संदेसो=संदेसा ले जानेवाला ' तुम्ह हृत = तुम्हारे लिये । रू = (क) रूपा, चाँदी । (ख) स्वरूप । वैसाई = बैठाया, जमाया। कंवल नैन“बईठा । मेरे नेत्रकमल में तू भौंरा (पुतली के समान) होकर बैठ गया। केवल । कहकमल के लिये ।