पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३०२

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पदमावत

१२ हंसि पदमावति मानी बाता । निहचय तू मोरे ढंग राता ॥ तू राजा दुहूँ कुल उजियारा। मस के चरिचिड़ें मरम तुम्हारा ।॥ पै। जंबूदीप बसेरा। किमि जानेसि कस सिंघल मोरा ? ॥ किमि जानेसि स मानसर केवा। सुनि सो भर भा, जिउ पर छेवा ॥ ना तुड़ सुनी, न कबहूँ दीठी । कैंस चित्न होइ चितदि पईडी ? ॥ जौ लहि अगिनि करें नहि भेदू। तौ लहि औौटि चुने नहि मेदू कहें संकर तोहि ऐस लखावा ? । मिला अलख अस पेम चखावा ॥ जेहि कर सत्य सँघाती तेहि कर डर सोह मेट । सो सत कह कै से भा, दुवी भाँति जो भेंट ।।२७। सत्य कहीं सुनु पदमावती। जहें सत पुरुष तहाँ सुरसती ॥ पाएई सुवा, कही वह बाता । भा निहचय देखत मुख राता ॥ रूप तुर हार सुनेई अस नीका। ना जेहि चढ़ा काहू कहें टीका ॥ चित्र किएछे पुनि लेइ लेइ नाऊँ। नैनहि लागि हि6 भा ठाऊँ हों भा साँच सुनत श्रोहि घड़ी । तुम होइ रूप माइ चित ची ॥ हाँ भा मूति मन हाथ तुम्हारे। काठ मारे। चहै जो कर सब । तुम्ह जी डो लाइटु तबहीं डोला। मौन साँस जौ दीन्ह तो बोला ।। क, जागे ? अस हाँ । सोवै, को गएऊँ विमोति परगट गुपुत न दूसरजहें देख तहूँ तोहि I२८। बिहँसी धनि सुनि के भाऊ रामा तू रावन राऊ । क सत । हां रहा जो भर कंवल के आासा। कस न भोग माने रस बासा ? जस सत कहा कुंवर ! तू मोही। तस मन मोर लाग पुनि तोही ।। जब हृत कहि गा पंखि संदेसी। सनिऊँ कि मावा है परदेसी ।। तब त तुम बिनु रहै न जीऊ। चातकि भइडे कहत पिउ पीऊ॥ भइकें चकोरि सो पंथि निहारी। सम् द सीप जस नैन पसारी ॥ भइ6 विरह दहि कोइल कारी। डार डार जिमि कूकि पुकारी . कौन सो दिन जब पिउ मिले, यह मन राता तासु । वह दुख देखे मोर सबहीं दुख देखीं तासु ।।२९। कहि सत भाव भई कठलाग। जन कंचन नौ मिला सोहागू ।। चौरासी आासन पर जोगी। खट रस, बंधक चतुर सी भागा। (२७) चरचिॐ = मैंने भाँपा (स्त्री० क्रिया) । बसेरा=निवासी । केवा = कमल। छेवा = डाला या खेला। (नैनहि लागि = अाँखों 1 = कसत्य । २८) से लेकर साँच () स्वरूप (ख) सच्चा । = (क) । रूप रूप (ख) चाँदी। (२६) रावन = (क) रमण करनेवाला। (ख) रावण । जब हृत = जब से । सुनिॐ = (मैंने) सुना (स्त्री० क्रिया) । तब कुंत=तब से । (३०) चौरासी आासन = योग के और कामशास्त्र के। बंधक = कामशास्त्र के बंध।