पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३०३

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पद्मावती रत्नसेन भेंट खंड १२१ कुसुम माल असि मालति पाई। जनु चंपा गहि डार औोनाई ॥ कली बेधि जनु भंवर भुलाना। हना राहु अरजुन के बाना ॥ कंचन करी जी नग जोती। बरमा सौ वधा जनु मोती । नारंग जानि कीर नख दिए। अधर आमरस जानते लिए । कौतुक केलि करहि दख नंसा। 8दहि कुरलहि जन सर हंसा ॥ रही बसाइ वासना, चोवा चंदन के मेद । हि अस पदमिनि रानी, सो ज यह भेद 1३०। रतनसेन सो कंत पंडित ।। सुजान । खटरस सोरह वान तस होइ पुरुष औ गोरी। विड्रो मिले जैसो सारस बोरी । रची ‘सारि दूनी एक पासा। होइ जुग जु श्रावह कबिलासा पिय धनि गही, दीन्हि गलबाहीं। धनि विी लागी उर माहीं ॥ ते छकि रस नव केलि करेहीं । चोका लाई अधर रस लेहीं । ? । धनि नौ सात, सात सौ पूरुष दस ते रह किमि वांचा पाचा । । लीन्ह विधाँसि विरह धनि साजा 1 औी सब रचन जीत हुत राजा ॥ जन, गौटि क मिलि गए, तस दूनी भए एक । कंचन कसत- कसौटी, हाथ न कोऊ टेक ।।३१। । चतुर नादि चित अधिक चिरंटी। जहाँ प्रेम बाढ़ किमी लूटी। मनहारी । कुरला हि कुलहि पाव होइ कंत कर तोख 1 करलहि किए धनि मोख ॥ गोद क, जानह लई। गेंद चाहि धनि कोमल भई ॥ दारिछेदाख, बेल रस चाखा । पिय के खेल धनि जीवन राखा ॥ भएड बसंत कली मुख खोली। वैन सोहावन कोकिल बोली ॥ पिउ धनि चातक पिउ करत जो सखि रहि, की भाँति । परी सो गेंद सीप ज, मोती होइ सुख साँति ॥ भएड जूझ जस "रावन रामा। सेज बिधौंसि विरह संग्रामा ॥ लीन्हि लंक, कंचन गढ़ टूटा। कीन्ह सिंगार अहा सब लूटा। औौनाई = झकाईराह । औौजार । = रोह मछली । बरमा = छेद करने का है। नंसा कहि -= नष्ट करते हैं। फंदह = कूदते हैं । कुरलहि = हंस नादि के बोलने को कुरलना कहते हैं । सारि = चौपड (३१) बानू = वर्णदीप्ति, कला। गोरी = स्त्री। चोका य लाइसात चूसने की क्रिया या भाव । चोका = चूसकर । नौ = सोलह श्रृंगार । सात - बारह आभरण-बाँचा = वे ऑो पाँचा : । पुरुष' शृंगार और आभरण पुरुष की दस उंगलियों से कैसे बचे रह सकते हैं । (३२) चिटीटचमी तृप्ति। मोबू = कुरला क्रीड़ा । मनुहारी = शांति, मोक्ष, छुटकारा । चाहि=अपेक्षा, बनिस्बत