पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३१०

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१२८
पदमावत

१२८ हौं अस जोगि जान सब कोऊ। बीर सिंगार जिते मैं दोऊ उहाँ सामुई रिपु दल माहाँ । इहाँ त काम कटक तुम्ह पाहाँ उहाँ त हय चढ़ि के दल मंड। इहाँ त ग्रधर अमिय रस खंडों उहाँ त खड़ग नरिदह मारी। इहाँ त विरह तुम्हार सँघारों उहाँ त गज पेलों होइ केहरि । इहवाँ काम कामिनी हिय हरि उहाँ त टौं कटक धारू। इहाँ त जीतीं तोर सिंगारू उहाँ त कुंभस्थल गज नावाँ । इहाँ त कुच कलसहि कर लावों परे बीच धरहरिया, प्रेम राज को टेक मानहि भोग छवो , मिलि द्वौ होइ एक ॥ ४ प्रथम बसंत नवल ऋतु नाई। सुऋतु चैत बैसाख सोहाई चंदन चीर पहिरि धरि अंगा। सैदुर दीन्ह बिहँ िभरि मंगा कुसुम हार औौर परिमल बासू। मलयागिरि छिरका कबिलास सौर सुपेती फूलन डासी। धनि नौ कंत मिले सुखबासी पिछ जोग धनि जोबन बारी। भोरे पुहुप संग करह धमारी होइ फाग भलि चाँचरि जोरी । बिरह जराइ दीन्ह जस होरी धनि ससि सरिसतप पिय सूरू । नखत सिंगार होहि सब चूरू जिन्ह घर कता ऋतु भलीथाव बसंतू जो नित्त सुख भरि अवह देवहरदुःख न जाने कित्त ऋतु ग्रीषम के तपनि न तहाँ :जेठ अषाढ़ कंत घर जहाँ पहिर सुरंग चीर धनि झीना । परिमल मेद रहा तन भीना। तन सिर सूबासा। नैहर राज, कंत घर पासा ऑी बड़ जूड़ तहाँ सोवनारा। अगर पोति, सुख तने औोहारा सेज बिछावन सर सुपेती। भोग विलास करह सुख सेंती। अधर तमोर कपुर भिमसेना। चंदन चरचि लाव तन बन भा आनंद सिंघल सब कहूँ। भागवत कहें सुख ऋतु छ । दारिॐ दाख लेहि सरजाम सदाफर हरियर तन सुटा कर, जो ग्रंस चाखनहार. रितु पावस बरसे पिछ पाबा। सावन भादौं अधिक सोहावा पदमावति चाहत ऋतु पाई । गगन सोहावनभूमि सोहाई कोकिल बैन, पाँति बग टी। धनि निसक जन बीरबांटी। चमक बीज, बरसे जल सोना । दादुर मोर सबद सु3ि लोना। रंगराती पीतम संग जागी। गरजे गगन चौंकि गर लागी । (४) मंडौं = शोभित करता हूं। इहवाँ कामहिय हरि = यहाँ कामिनी के हृदय से कामताप को हरकर ठेलता खंधारू = स्कंधावारतंव, छावनी बरहरिया = वीचखिचाव करनेवाला।(4) सार—चादरडासी-बैंछाई हुई। देवहरे = देवमंदिर में । (६) झीना महोन सिअर शीतल। सोवनाएँ शयनृागार औोहारा उपदे सुख सेती सुख से () चाहति - मनचाही. बरजल सोनाकौधे की चमक में पानी की बूदें सोने को दों सी लगती