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नागमती संदेश खंड
१३९

रतनसेन के माइ सुरसती । गोपीचंद जसि मैनावती ।
आँधरि बढ़ होइ दुख रोवा। जीवन रतन कहाँ दहुँ खोवा॥
जीवन अहा लीन्ह सो काढ़ी । भइ विनु टेक, करै को ठाढ़ी?
बिनु जीवन भइ पास पराई। कहाँ सो पूत खंभ होइ पाई।
नैन दीठ नहिं दिया बराहीं। घर अँधियार पूत जौ नाहीं॥
को रे चलै सरवन के ठाऊँ। टेक देह औ टेक पाऊँ।
तुम सरवन होइ काँवरि सजा। डार लाइ अब काहे तजा?

'सरवन ! सरवन !' ररि मुई. माता काँवरि लागि ।
तुम्ह विनु पानि न पावै, दसरथ लावै आगि॥४॥

लेइ सो सँदेस बिहंगम चला। उठी आगि सगरौं सिंघला॥
बिरह बजागि बीच को ठेघा? | धम सो उठा साम भए मेघा॥
मरिगा गगन लूक अस छटे । होइ सब नखत आइ भुइँ टूटे॥
जहँ जहँ भूमि जरी भा रेह । बिरह के दाघ भई जनु खहू।
राहु केतु, जब लंका जारी । चिनगी उड़ी चाँद मह परी॥
जाइ बिहंगम समुद डफारा। जरे मच्छ पानी भा खारा॥
दाधे बन बीहड़, जड़, सीपा । जाइ निअर भा सिंघलदीपा॥
समुद तीर एक तरिवर, जाइ बैठ तेहि रूख॥
जौ लगि कहा सँदेस नहि, नहिं पियास, नहिं भूख॥५॥


(४) खंभ = सहारा । बराहीं = जलते हैं। सरवन = 'श्रमणकुमार' जिसकी 'कथा उत्तरापथ में घर घर प्रसिद्ध है। एक प्रकार के भिखमंगे सरवन की भक्ति की कथा करताल बजाकर गाते फिरते हैं। यह कथा वाल्मीकि रामायण में दशरथ ने अपने मरने से पहले कौशल्या से कही है। दशरथ ने युवावस्था में शिकार खेलते समय एक वद्ध तपस्वी के पुत्र को हाथी के धोखे में मार डाला था। वह मनिपत्र अंधे वद्ध माता पिता के लिये पानी लेने आया था। वृद्ध मुनि ने दशरथ को शाप दिया कि दम भी पूत्रवियोग में मरोगे। दशरथ नाम न देकर यही कथा बौद्धों के 'सामजातक' में भी पाई है। पर उसमें अंधे मनि बद्ध के पूर्ण उपासक कहे गए हैं और उनके जी उठने की बात है। रामायण में 'श्रमणकुमार' शब्द नहीं आया है, केवल मनिपुत्र लिखा है । पर इस कथा का प्रचार बौद्धों में अधिक हा, इसी से यह 'सरवन' अर्थात् श्रमण (बौद्ध भिक्ष) की कथा के नाम से ही देश में प्रसिद्ध है। 'सरवन' के गीत गानेवाले प्रारंभ में एक प्रकार के बौद्ध भिक्ष ही थे। इसका आभास इस बात से मिलता है कि सरवन के गानेवाले के लिये अभी थोड़े दिन पहले तक यह नियम था कि वे दिन निकलने के पीछे न माँगा करे, मँह अँधेरे की माँग लिया करे । काँवरि = बाँस के डंडे के दोनों छोरों पर बँधे हए झाबे, जिनमें तीर्थयात्री लोग गंगाजल अादि लेकर चला करते हैं (सरवन अपने माता पिता को कांवरि में बैठाकर ढोया करते ५) ठेघा= टिका, ठहरा । डफारा - चिल्लाया।