पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
रत्नसेन बिदाई खंड
१४५

दिवस देहु सह कुसल सिघावहिं । दोरघ अाइ होइ, पुनि श्रावहिं॥

सबहिं विचार परा अस, भा गवने कर साज ।।
सिद्धि गनेस मनावहि, विधि पुरवहु सब काज॥३॥

बिनय करै पदमावति बारी। 'हौं पिउ ! जैसी कुंद नेवारी॥
मोहि असि कहाँ सो मालति बेली। कदम सेवती चंप चमेली॥
हौ सिंगारहार जस तागा। पहप कली अस हिरदय लागा॥
हौं सो बसंत करौं निति पूजा। कुसुम गुलाल सुदरसन कूजा॥
बकुचन बिनवौं रोस न मोही । सुनु, बकाउ तजि चाहु न जूही।
नागेसर जो है मन तोरे । पूजि न सकै बोल सरि मोरे।
होइ सदबरग लीन्ह मैं सरना । आगे करु जो, कंत! तोहि करना।

केत बारि समुझावै, भँवर न काँट' बेध ।
कहै मरौं पै चितउर, जज्ञ करौं असुमेध॥४॥

गवनचार पदमावति सूना । उठा धसकि जिउ ौ सिर धूना॥
गहबर नैन आए भरि आँसू । छाँड़ब यह सिंघल कबिलासू॥
छाँडिउँ नैहर, चलिउँ बिछोई। एहि रे दिवस कहँ हौं तब रोई।
छाँडिउ अापन सखी सहेली। दुरि गवन, तजि चलिउँ अकेली।
जहाँ न रहन भएउ बिन चाल । होतहि कस न तहाँ भा काल।
नैहर पाइ काह सुख देखा ? जनु होइगा सपने कर लेखा॥
 राखत बारि सो पिता निछोहा । कित वियाहि अस दीन्ह बिछोहा॥

हिये आइ दुख बाजा, जिउ जानह गा छेकि ।
मन तेवान कै रोवै, हर मंदिर कर टेकि॥५॥

पुनि पदमावति सखी बोलाई । सुनि के गवन मिलै सब आई॥
मिलहु, सखी ! हम तहवाँ जाहीं। जहाँ जाइ पुनि पाउब नाहीं।
सात समुद्र पार वह देसा। कित रे मिलन, कित पाव सँदेसा॥
अगम पंथ परदेस सिधारी । न जनों कुसल कि बिथा हमारी॥
पितं न छोह कीन्ह हिय माहाँ । तहँ को हमहिं राख गहि बाहाँ?

((rule)) (४) मालति = अर्थात् नागमती। कदम सेवती = (क) चरणसेवा करती है, (ख) कदंब और सफेद गुलाब । हौ सिंगारहार...तागा = हार के बीच पडे हए डोरे के समान तम हो। पहप कली...लागा-कला के हृदय के भीतर इस प्रकार पैठे हुए हो । बकुचन = (क) बद्धांजलि, जुड़ा हुआ हाथ; (ख) गच्छा । बकाउ-बकावलो। नागसेर = (क) नागमती, (ख) एक फूल । बोल = एक झाडो जो अरब, शाम की ओर होतो ओर है। केत बारि= (क) केतकी रूपवाला, (ख) कितना हो वह स्त्री। (५) धसकि उठा = दहल उठा । गहबर - गीले । होतहि...काल = जन्म लेते ही क्यों न मर गई । बाजा = पड़ा । तेवान = सोच, चिता। हर मंदिर = प्रत्येक घर में । (६) बिथा = दुःख । गिउ मेला = गले पड़ा।