पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३२८

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पदमावत

हम तुम मिलि एकै संग खेला । अंत बिछोह आनि गिउ मेला ॥ तुम्ह अस हित संघती पियारी । जियत जीउ नहिं करौं निनारी ॥ कंत चराई का करौं, आयसु जाइ न मेटि । पुनि हम मिलहिं कि ना मिलहि, लेहु सहेली भेटि ॥ ६ ॥ धनि रोवत रोवहि सब सखी ! हम तुम्ह देखि आपु कहँ झँखी ॥ तुम्ह ऐसी जौ रहै न पाई। पुनि हम का जो आहि पराई ॥ आदि अंत जो पिता हमारा । ओहू न यह दिन हिये बिचारा ॥ छाह न कीन्ह निछोही ओहू। का इन्ह दोष लाग एक गोहूँ ॥ मकु गोहूँ कर हिया चिरानी । पै सो पिता न हिये छोहाना ॥ ओ हम देखा सखी सरेखा। एहि नैहर पाहन के लेखा ॥ तब तेइ नैहर नाहीं चाहा । जौ ससुरारि होइ अति लाहा ॥ चालन कहँ हम अवतरी, चलन सिखा नहिं जाय । अब सो चलन चलावै, को राखै गहि पाय? ७ ॥ तुम बारी पिउ दहँ जग राजा । गरब किरोध प्रोहि पै छाजा ॥ सब फर फल प्रोहि के साखा । चहै सो तुरै, चाहै राखा ॥ आयसु लिहे रहिह निति हाथा । सेवा करिह लाइ भइँ माथा ॥ बर पीपर सिर ऊभ जो चीन्हा । पाकरि तिन्हहि छीन कर दीन्हा।। बोरि जो पौढ़ि सीस भइँ लावा । बड फल सूफल प्रोहि जग पावा॥ ग्राम जो परि कै नवै तराहीं। फल अमत भा सब उपराहा ॥ सोइ पियारी पियहि पिरीती। रहै जो प्रायसु सेवा जीती ॥ पत्रा काढ़ि गवन दिन देखहि, कौन दिवस दहुँ चाल । दिसासूल चक जोगिनि सौंह न चलिए, काल ॥ ८ ॥ अदित सूक पच्छिउँ दिसि राह । बीफै दखिन लंकदिसि दाहू ॥ साम सनीचर पुरुव न चाल । मंगल बद्ध उत्तर दिसि कालू ॥ अवसि चला चाहै जो कोई। अोषद कहौं, रोग नहि हाई॥ मंगल चलत मेल मख धनिया । चलत सोम देखै दरपनिया॥ सूकहि चलत मेल मख राई। बीफै चलै दखिन गुड़ खाई॥ अदित तँबोल मेलि मख मंड। बायबिरंग सनीचर खडे ॥ प...गाहू - हम लोगों को एक का खुदा ने म तादाप लगा ( (७) भ.खी = झीखी, पछताई। का हम्ह दोष...गोह - हम लोगों को एक गेहूँ के कारण क्या ऐसा दोप लगा (मसलमानों के अनसार जिस पौधे के फल को खुदा ने मना करने पर भी हौवा ने ग्रादम को खिलाया था वह गेहूं था। इसी निषिद्ध फल के कारण खदा ने हौवा को शाप दिया और दोनों का बहिश्त से निकाल दिया) । चिराना=बीच से चिर गया। छोहाना = दया को। सरेखा: चतुर । (८) तूरै - तोड़े। ऊभ = ऊँचा, उठा हआ। बौरि: लता। पौढ़ि = लेटकर । तराहा = नीचे। सेवा जीता = सेवा में सबसे जीती हुई अर्थात बढ़कर रहे । (६) अदित = अादित्यवार । सूक = शुक्र । खंडै = चबाय ।