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रत्नसेन विदाई खंद


जब पहुँचाइ फिरा सब कोऊ। चला साथ गुन अवगुन दोऊ॥
औ सँग चला गवन सब साजा। उहै देइ अस पारे राजा॥
डोली सहस चली सँग चेरी। सब पदमिनी सिंघल केरी॥
भले पटोर जराव सँवारे। लाख चारि एक भरे पेटारे॥
रतन पदारथ मानिक मोती। काढ़ि भँडार दीन्ह रथ जोती॥
परखि सो रतन पारखिन्ह कहा। एक एक दीप एक एक लहा॥
सहसन पाँति तुरय कै चली। औ सौ पाँति हस्ति सिंघली॥

लिखनी लागि जौ लेखै, कहै न पार जोरि।
अरब, खरब दस, नील, संख औ अरबुद पदुम करोरि॥१६॥

देखि दरब राजा गरवाना। दिस्टि माहँ कोइ और न आना॥
जो मैं होहुँ समुद के पारा। कों है मोहि सरिस संसारा॥
दरब तें गरब, लोभ विष मूरी। दत्त न रहै, सत्त होइ दूरी॥
दत्त सत्त हैं दूनौ भाई। दत्त न रहै, सत्त पै जाई॥
जहाँ लोभ तहँ पाप सँघाती। सँचि कै मरै आति के थाती॥
सिद्ध जो दरब आगि के थापा। कोई जार, जारि कोई तापा॥
काहू चाँद, काहु भा राहू। काहू अमृत, विष भा काहू॥

तस भुलान मन राजा, लोभ पाप अँधकूप।
आइ समुद्र ठाढ़ भां, कै दानी कर रूप॥१७॥


 

एक एक दीप लहा = एक एक रत्न का मोल एक एक द्वीप था। (१७) दत्त = दान। सत्त = सत्य। सँचि कै = संचित करके। सिद्धि जो थापा = जो सिद्ध हैं वे द्रव्य को अग्नि ठहराते हैं। थापा = थापते हैं, ठहराते हैं। दानी = दान लेनेवाला, भिक्षुक। क॑ दानी कर रूप = मंगन का रूप धरकर।