पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३३७

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लक्ष्मी समद्र खंड १५५ कन्हि ‘न जानह हम तोर पीऊ । हम तोहि पाव रहा नहि जीज ॥ पाट परी भाई तुम बही । ऐस न जानहि दहूँ कहें ग्रहो’ ॥ तब सुधि पदमावति मन भई। मुंवरि बिछोह मुरुषि मरि गई । नैनहेि रकत सुराही ढ। जनहें रकत सिर काटे पड़े खन चेत खन होइ बेकरारा। भा चंदन बंदन सब छारा ।। बाउरि होइ परी पुनि पाटा । देहूँ बहाइ कंत जेहि घाटा ॥ को मोहि शागि देइ रचि होरी। जियत न बिछुरे सारस जोरी ॥ जेहि सिर परा बिछोहा, देहु मोहि सिर शागि। लोग कहें यह सिर चढ़ी, हाँ सो जर्टी पिउ लागि 1 ४ ॥ काया उदधि चितव पिउ पाहाँ । देखीं रतन सो हिरदय माहाँ ॥ जनहें श्राहि दरपन मोर हीया । तेहि महें दरस देखा पीया ॥ नैन नियर पहुँचत सुठि दूरी । अब तेहि लागि मरों में दूरी ॥ पिछ हिरदय महें भेंट न होई । को रे मिलाव, कहीं केहि रोई ? ॥ साँस पास निति प्रावै जाई । सो न सँदेस कहे मोहि आाई ॥ नैन कौड़िया होइ भेंड़राहीं । थिरक मारि पे माने नाहीं ॥ मन भंवरा भा कर्नेल बसेरो । होइ मरजिया न मानें हेरो ।। साथो ग्राथि निश्राथि जो, सकै साथ निरबाहि । जौ जिउ जारे पिउ मिलेभेंदु रे जिउ ! जरि जाहि ॥ ५ ॥ सती होइ कहूँ सीस उघारा। घन महें वीजु घाव जिमि माता ॥ सेंद्र जगे आागि जन लाई। सिर के आारीि सँभारि न जाई ॥ छू माँग ग्रस मोति पिरोई। बारह बार जरें जो रोई ॥ टह मोति बिछोह "जो भरे । सावन बंद गिरह जनु भरे ॥ भहर भहर के जोबन बरा। जानहें कनक अगिनि महें परा अगिनि माँग, प देइ न कोई। पाहन पवन पानि सब कोई ॥ खीन लंक दूी दुखभरी । बर बिनु रावन केहि होइ खरी। रोवत पंखि बिमोहजस कोकिला आरंभ जाकरि कनक लता सो, बिछुरा पीतम खंभ ॥ ६ । लछिमी लागि बुझाने जीऊ। ना मरु बहिन ! मिलहि तोर पीऊ ॥ (४) पाव = पाया । मुंवरि = स्मरण करके । सर = चिता।(५ )थिरकि मार थिरकता या चारों ओोर नाचता है। साथोwनिरवाहि = साथी वही है। जो धन और दरिद्रता दोनों में साथ निभा सके। आाथि = सार, पूजी। निसाथी - निर्धनता । (६) घन मृह“मारा = काले बालों के बीच माँग ऐसी है जैसे बिजली की दरार । भहर भहर = जगमगाता हुआा 1 = माँग माँगती है । पाहुन पवन“सब कोइ = मेहमान समझकर सब पानी देती हैं औौर हवा करती हैं । बर = बल, सहारा । परंभ = रंभ, नाद, कूक। (७) बुझाई लागि = समझाने बझाने लगी ।