पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३३९

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लक्ष्मी समुद्र खंड १५७ काहि पुकारोंजा पह जाऊ। गाड़े मीत होइ एहि ठाऊँ। को यह समुद मथे बल गा: । को मथि रतन पदारथ काढ़ ? ॥ कहाँ सो बरम्हा, बिसुन महेसू । कहाँ सुमेरुकहाँ वह सेस ॥ को अस साज देइ मोहि आानी । बासुकि दाम, सुमेरु मथानी ॥ को दधि समुद मर्थ जस मथा ? । करनी सार न कहिए कथा । जौ लहि मर्थ न कोई देइ जीऊ। सूधी अँगुरि न निकघीऊ ॥ लीलि रहा अब ढील होइ, पेट पदारथ मेलि । को उजियार करें जग, सपा चंद उपेंलि ? 1१०॥ ए गोसाईं तू सिरजन हारा। तु सिरजा यह समुद अपारा ।। तुर्थी आस गगन अंतरिख थाँभा । जहाँ न टेक, न यूनि, न खाँभा॥ तुहूं जल ऊपर धरती राखी। जगत भार लेइ भार न थाकी ॥ चाँद सुरुज ऑौ नखतन्ह पाँती । तोरे डर धावह दिन राती ॥ पानी पवन झागि नौ माटी। सब के पीठ तोरि है साँटी। सो मूरुख नौ बाउर अंधा । तोहि छड़ेि चित औौरहि बंधा ॥ घट घट जगत तोरि है टीठी । हौं अंधा जेहि सूझ न पीठी ॥ पवन होइ भा पानी, पानि होइ भा आागि नागि होड़ भा माटी, गोरखधंधे लागि 1११ तुर्दा जिउ तन मेरवसि देइ प्राऊ । तुही बिछवति, करसि मेराऊ ॥ चौदह भुवन सो तोरे हाथा। जहें लगि बिशूर आाव एक साथ!! सब कर मरम भेद तोहि पाहाँ । रोकें जमावसि ट: जाहाँ ॥ जानसि सर्ध अवस्था मोरीजस बिटुरी सारस के जोरी ॥ एक मुए ररि मुवै जो दूजी। रहा न जाइ, आउ अब पूज ॥ झरत तपत बहत दुख भरऊँ। कलपाँ माँथ वेगि निस्तर ! मेरी सो लेइ पदमावति नाऊँ। तुर्सी करतार करेसि एक ठाऊँ। दुख सीं पीतम भटि , सुख सों सोव न कोइ । एंहि ठॉव मन डरपं, मिल न बिछोहा होइ 1१२ । (१०) मीत होइ = जो मित्र हो । गाढ == संकट के समय में । = दाम रस्सी। करनी सारकथा = करनी मुख्य है, बात कहने से क्या है। बटा भा = बटाऊ हुआा, चल दिया । ढील होई रहा = चुपचाप बैठ रहा। उषेलि = खोलकर (११) थाँभा = ठहराया, टिकाया । नि = लकड़ी का बल्ला जो टेक के लिये छप्पर के नीचे खड़ा किया जाता है । भार न थकी = भार से नहीं थकी। सब के पीठि’ ‘साँटी = सब की पीट पर तेरी छड़ी है, अर्थात् सब के ऊपर तेरा शासन है । (१२) मेरवसि = तू मिलाता है । नाउ = आयु । बिछोवसि = बिछोह करता है। मेराऊ = मिलाप। जाहाँ = जहाँ । कलपों कार्दू । करेसि = तुम करना