पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३४१

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लक्ष्मी समुद्र खंड १५९ तपि के पावा, मिलि क फूला । पुनि तेहि खोइ सोइ पथ भूला। पुरुष न ग्रापनि नारि सराहा। मुए गए संवर प चाहा ॥ कहें ग्रस नारि जगत उपराहों ? । कहें घस जीवन के सुख छाहीं । कस रह भोग व करना। ऐसे जिए चाहि मरना ॥ भल । जहें अस परा समुद नग दीया। तहूँ किमि जिया चहै मरजीया ? जस यह समुद दोन्ह दुख मोकाँ। देह हत्या झग सिवलोका।" का मैं हि क नसावा, का सेंवरा सो दावं ? । जाइ सरग पर होइहि, एहि कर मोर नियावें 1१६। । जौ तु मुवा, कित रोवसि खरा ? । ना मुइ मरे, न रोवे मरा ॥ जो मरि भा ओौ छांति काया। बहरि न करें मरन के दाँधा ॥ जो भरि भएड न बड़े नीरा । व हा जाइ लागे थे तोरा ॥ तुही एक में बाउर भटा। जैत राम दसरथ कर बेटा ॥ ओोह नारि कर परा बिछोवा। एहि समुद्र महें फिरि फिरि रोवा ॥ उदधि श्राइ तेइ बंधन कोन्हा। हरित दसमाथ अमरपद दोन्हा ॥ तोहि बल नाहि मूदु अब ऑाँखी । लाव तीर, टेक बैसाखी ॥ बाउर अंध प्रेम करसुनत लू धि बाट 'भा । निमिष एक महें लेइगा, पदमावति जेहि घाट 1१७॥ पदमावति कहें दुख तस बीता। जस असोक बोरी तर सीता ॥ कनक लता दुइ नारंग फरो। तेहि के भार उठि होइ न खरी । पर ग्रल भुगंगिनि डसा। सिर पर चढ़े हिये परगसा ॥ रही मृभाल टे कि दुखदाधो। आाधी कंवल भई, ससि आधी ॥ नलिनखंड दुइ तस करिहाऊँ। रोमावली विक कहाऊँ। रही हूटि जिमि कंचन तागू । को पिउ औमेरबैदेइ सोहागू ॥ पान न खाइ करै उपवासू । फूल सूखतन रही न बास ॥ गगन धरति जल चुड़ेि गएबू ड़त होइ निसाँस पिउ पिछ चातक ज्यों र", मरे सेवाति पियास ॥१८। लछिमी चंचल नारि परेवा। जेहि सत होइ रै के सेवा ॥ रतनसेन श्रावै जेहि घाटा । अगमन होइ बैठी तेहि बाटा ॥ औौ भइ पदमावति के रूझा। कोन्हेसि छहजरें जद धूषा ॥ फूला = प्रफुल्ल हुआा । चाहि = अपेक्षा, बनिस्बत । मोक = मोकाँ, मुझको देइ हत्या = सिर पर हत्या चढ़ाकर 1 दाँव = बदला लेने का मौका। (१७) मरि भा = मर व का । दायाँ = दावें, आायोजन । बाट भा = रास्ता पकड़ा। (१८) बी = विरवा, पेड़ । दाधो = जलो हुई । करिहाॐ = कमरकटि । बिक= विच्यू । सेवाति = स्वाति नक्षत्र में । (१९) औरै = छलती है । बाटा = मार्ग में । अगमन = भागे । २१