पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३४२

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पदमावत

१६ देखि सो वल भंवर होड़ धावा । साँस लीन्ह, बह बास न पावा ॥ निरखत प्राइ लच्छमी दीठी। रतनसेन तब दीन्हीं पीठी ॥ जो भलि होति लच्छमी नारी । तजि महेस कत होत भिखारी ? ॥ पुनि धनि फिर भागे होइ रोई । पुरुष पीठ कस दोन्ह निष्खोई ? ॥ हीं रानी पदमावति, रतनसेन पीड यानि समुद महें छठेहुअब रोवीं देइ जीउ 1१९॥ मैं हीं सोइ भेंबर नौ भोजू । लेत फिरौ मालति कर खोज ॥ मालति नारी, भंवरा पीऊ । लहि वह बास रहै थिर जीछे । का तुईं नारि वैटि अस रोई। फ्ल सोइ पै बास न सोई ॥ भंवर जो सब फूलन कर फरा । बीस न लेइ मालतिहि हेरा ॥ जहाँ पाव मालति कर बालू । वारै जीउ तहाँ होई दास ॥ कित वह बास पवन पहुँचावें । नव तन होझ, पेट जिउ श्रावै । हवें ओोहि वास जीउ बलि देऊँऔर फूल के बास न ले ॥ भंवर मालतिहि प चहै, काँट न जाने दीठि। सौहैं भाल खाइ, पै, फिरि के देइ न पीठि 1२०॥ तब हंसित श्रोहि ठाऊँ। जहाँ सो मालति लेइ चलजाऊँ॥ कह राजा लेइ सो जाइ पदमावति पासा। पानि पियावा मरत पियासा ॥ पानी पिया कंवल _जस तपा। निकसा सुरुज महें समुद छपा ।। मैं पावा पिउ समुद के घाटा । राजकुंवर मनि दिपे ललाटा। दसन दिपे जस हीरा जोती। नैन कचोर भरे जनु मोती । भुजा लंक उर केहरि जीता। मरति कान्ह देख गोपीता जस राजा नल दमनहि पूछा । तस बिनु प्रान पिंड है यूछा ॥ जस तू पदिक पदारथ, हंस रतन तोहि जोग। मिला भंवर मालति कहेंकरहु दोउ मिलि भोग 1२१। पदिक पदारथ खीन जो होती । सुनतहि रतन चढ़ी मुख जोती कंवल जो बिहंसि सूर मुख दरसा । सूरज कंबल दिस्टि सीं परस ॥ लोचन कंवल सिरीमुख सूरू। भएउ आनंद दुहूँ रस मूरू । मालति देखि भंवर गा भूली। भंवर देखि मालति बन फूली ॥ दीठी = देखा। दीन्ही पीठी = पीठ दी, मुंह फेर लिया । (२०) खोजू = पता। कर फेरा = फेरा करता है । हेरा = हढता है। वारै = निछावर करता है । नव = नया । भाल = भाला। (२१) ले इ चलू, जाऊँ=यदि ले चले तो जाऊँ। छपा = छिपा हुआा। कचोर -= कटोरा । गोपीता - गोपी। दमनहि । = दमयंती को। पिड = शरीर । छा = खाली। पदिक = गले में पहनने का एक चौबूटा गहना जिसमें रत्न जड़े जाते हैं । (२२) पदिक पदारथ=अर्थातु पद्मावती। बहरा = लौटा, फिरा । मूरू = मूल, जड़ ।