पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३४३

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लक्ष्मी समुद्र खंड १६१ देखा दरस। भए एक पासा। वह मोहिते, वह ओोहिके आासा ॥ कंचन दाहि दीन्ह जन जीऊ। ऊवा सूर, छटिगा सोऊ ॥ पार्ट्स परी धनि पीउ के, नैनन्ह सों रज मेट । अचरज भएड सबन्ह कहेंभइ ससि कवलहि भेंट ।२२॥ जिनि का कद होइ बिछोऊ । जस वें मिले मिले सब को ॥ पदमावति" जी पावा पोऊ। जन मरजियहि परा तन जोऊ । के नेवछाबरि तन मन बारी। पार्यान्ह परी घालि गिड नारी ॥ नव अवतार दीन्ह बिधि था । रही छार भइ मानुष साजू ॥ राजा रोव घालि गिड पाग। पदमावति के पायन्ह लाग॥ तन जिउ महें बिधि दीन्ह बिछोऊ। अस न करे तो चोन्ह न को। सोई मारि छार के मेटा । सोइ जियाइ कराने भट । मुहमद मीत जौ मन बसें, बिधि मिलाब मोहि आानि । संपति बिपति पुरुष कहेंकाह लाभका हानि ।२३॥ लछमी सर्ण पदमावति कहा । तुम्ह प्रसाद पायरें जो चहा । जौ सब खोइ जाहि हम दोऊ। जो देखे भल कहै न कोऊ ॥ जे सब कुंवर पाए हम साथी । औौ जत हस्ति, घोड़ औ साथी । जौ पावसुख जीवन भोगू। नाहि त मरन, भरन दुख रोगू ॥ तब लछमी गइ पिता के ठा। जो एहि कर सब बूड़ सो पा॥ तब सो जरी अमृत लेइ नावा। जो मरे हत तिन्ह चिट्रिक जियावा एक एक के दोह हो जानी। भा सँतौष मन राजा रानी ॥ प्राइ मिले सब साथी, हिलि मिलि करहि आनंद । भई प्राप्त सुख संपति, गएछ छूट दुख दंद ॥ २४ ॥ ऑौर दोन्ह बह रतन पखाना । सोन रूप तो मनहि न माना। जे बहु मोल पदारथ नाऊँ। का तिन्ह बरनि कहीं तुम्ह ठाऊ ।। तिन्ह कर रूप भाव को कहै। एक एक नग दीप जो लहे ॥ होर फार बहु मोल जो अहै । तेइ सब नग चुनि चुनि के गहै । एक पासा = एक साथ । सीऊ = सीता। रज मेट: =से को धूल =ासु पर धोती है। भइ ससि केंवलहि भेंट = शशि, पद्मावती का मुख औौर कमल, राजा के चरण । (२३) घालि गिउ = गरदन नोचे झुकाकर। मानुष साज = मनुष्य रूप में । घालि गिड पागा गले में दुपट्टा डालकर । पागा = पगड़ो तन जिज ड । "चोन्ह न कोऊ = शोर औौर जोव के बोच ईश्वर ने वियोग दिया यदि वह ऐसा न करे तो उसे कोई न पहचाने । (२४) तुम्ह = तुम्हारे। ग्रथो = पूजोधन। जरी = जड़ी। (२५) पखाना - नग पत्थर । सोन = सोना 1 रूप = चाँदो। तुम्ह ठाई = तुम्हारे निकटतुमसे । हीर फार = हीरे के टुकड़े ।