पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३४४

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१६२
पदमावत

१६२ जौ एक रतन भेजावै कोई। करे सोइ जो मन महें होई ॥ दरव गरब मन गएछ भुलाई । हम सम लच्छ मनहि नहिं आाई ।। लघु दीरथ जो दरब बखाना। जो जेहि चहिय सोइ तेइ माना ॥ बड़ औ छोट दोउ समस्वामी काज जो सोइ । जो चाहिय जेहि काज , ओोहि काज सो होइ ॥ २५ । दिन दस रहे तहाँ पहनाई। पुनि भए बिदा समुद सधे जाई ।॥ लछमी पदमावति स भंटी। औ तेहि कहा मोर टू वेटी' ॥ दीन्ह समुद्र पान कर बीरा। भरि के रतन पदारथ हीरा । औीर पाँच नग दीन्ह बिसेखे । सरवन सुना, नैन नहि देखे ॥ एक तौ , दूसर हंसू । नौ तीसर पखा कर बंसू । ॥ चौथ दीन्ह सावक सादुरू। पाँच परस, जो कंचनमूरू । तरुन तुरंगम यानि चढ़ाए। जलमानुष अगुवा सेंग लाए । भेंटघाँट के समदि तब, फिरे नाइ माथ । जलमानुष तबहीं फिरेजब आाए जगनाथ ॥ ३६ ॥ जगन्नाथ कहें से देखा थाई। भोजन रीधा भात विकाई । राजे पदमावति सौं कहा। साँठेि नाधुि किय गाँटि न रहा । साँ िहोइ जेहि तेहि सब बोला। निर्सठ जो पुरुष पाँत जिमि डोला ।। साँठिहि: रंक चलै भौंराई। निसंठ राव 'सब कह बौराई । साँठिहि भाव गरब तन फूला। निर्सेठहि बोल, बुद्धि बल भूला . साँठिहि जागि नींद निसि जीई । निर्सटह काह होइ औौंघाई ॥ साँठियह दिस्टि, जोति होइ नैना। निसँठ होझ, मुख चाव न बैना ॥ साँठिहि रहै साधि तन, निर्मोठहि नागरि भूख । बिनु गथ विरिछ निपात जिमि, ठाढ़ ठाढ़ से सूख ॥ २७ ॥ पदमावति बोली सुन राजा। जीउ गए धन कौने काजा ? ॥ नहा दरब तब कीन्ह न गाँठी। पुनि कित मिले लच्छि जौ नाटी ॥ फारफलकतराटुकड़ा । हम सम लच्छ = हमारे ऐसे लाखों हैं । (२६) पहुँनाई=मेहमानी। बिसेखे =विशेष प्रकार के । बंसू 7 बंश, कुल । सावक साढरू = शादूल शावक, सिह का बच्चा । परस = पारस पत्थर । कचन-मू रू =सोना करनेवालाजलमानुष सोने का मूल अर्थात् उत्पन्न । = समुद्र के मनुष्य । अगुवा =पथप्रदर्शक । ढंग लाए = संग में लगा दिए । भेंट घाँट = भेंट मिलाप । समदि : बिदा करके । (२७) रीधा = पका हुआा । साँर्डि = पूंजी, धन । नाटि=नष्ट हई । झराई = झूमकर । कह=कहते हैं । ऑौंघाई = नींद ! साधि तन = शरीर को संयत करके । नागरि = बढी हई, अधिक । गथ ८ पंजी । नाठी = नष्ट हुई ।