पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३९०

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पदमावत

बरिस साठ लगि साँठि न खाँगा। पानि पहार चुवैं बिनु माँगा॥
तेहि ऊपर जौ पै गढ़ टूटा। सत सकबंघी केर न छूटा॥
सोरह लाख कुँवर हैं मोरे। परहिं पतंग जस दीप अँजौरे॥
जहिं दिन चाँचरि चाहौं जोरी। समदौं फागु, लाइ कै होरी॥
जौ निसि बीच, डरै नहिं कोई। देखु तौ काल्हि काह दहुँ होई[१]

अबहीं जौहर साजि कै, कीन्ह चहौं उजियार।
होरी खेलौं रन कठिन, कोई समेटै छार ॥ ३ ॥

 

अनु राजा सो जरै निशाना। बादशाह कै सेव न माना॥
बहुतन्ह अस गढ़ कीन्ह सजवना। अंत भई लंका जस रवना॥
जेहि दिन वह छेंकै गढ़ घाटी। होइ अन्न ओही दिन माटी॥
तू जानसि जल चुवै पहारू। सो रोवै मन सँवरि सँघारू॥
सूतह सूत सँवरि गढ़ रोवा। कस होईहि जो होइहि ढोवा॥
सँवरि पहार सो ढारै आँसू। पै तोहि सूझ न आपन नासू॥
आजु काल्हि चाहै गढ टूटा। अबहुँ मानु जौ चाहसि छूटा॥

हैं जो पाँच नग तो पहँ लेइ पाँचो कहँ भेंट।
मकु सो एक गुन मानै, सब ऐगुन धरि मेट ॥ ४ ॥

 

अनु सरजा को मेटै पारा। बादसाह बड़ अहै तुम्हारा॥
ऐगुन मेटि सकै पुनि सोई। औ जो कीन्ह चहै सो होई॥
नग पाँचौं देइ देउँ भंडारा। इसकंदर सौं बाँचै दारा॥
जौ यह वचन त माथे मोरे। सेवा करौं ठाढ़ कर जोरे॥
पे बिनु सपथ न अस मन माना। सपथ बोल बाचा परवाना॥
खंभ जो गरुअ लीन्ह जग भारू। तेहि क बोल नहिं टरै पहारू॥
नाब जो माँझ भार हुँत गीवा। सरजै कहा मंद वह जीवा॥


साँठि = समान। खाँगा = कम होगा। समदौं = बिदा के समय का मिलना मिलूँ। जो निसि बीच...दहुँ होई = (सरजा ने जो कहा था कि 'देखु काल्हि गढ़ टूटै' इसके उत्तर में राजा कहता है कि) यदि रात बीच में पड़ती है (अभी रात भर का समय है) तो कोई डर की बात नहीं; देख तो कल क्या होता है? (४) अनु = फिर। सजवना = तैयारी। रवना = रावण। अन्न माटी होइ = खाना पीना हराम हो जायगा। सँघारु = संहार, नाश। ढोवा= लूट। मकु सो एक गुन...मेट = शायद वह तुम्हारे इस एक ही गुण से सब अवगुणों को भूल जाय। (५) को मेटै पारा = इस बात को कौन मिटा सकता है कि। भँडारा = भंडार से। जौ यह बचन = जो बादशाह का इतना ही कहना है तो मेरे सिर माथे पर है। बाचा परवाना = बचन का प्रमाण है। नाव जो माँझ...गीवा = जो किसी बात का बोझ अपने ऊपर लेकर बीच में गरदन हटाता है।

  1. पाठांतर = 'देइकै घरनि जो राखै जीऊ। सो कस आपुहि कहि सक पीऊ॥'