पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/४१८

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पदमावत

दुःख भरा तन जेत न केसा। तेहि का सँदेस सुनावसि, बेसा?॥
सोन नदी अस मोर पिउ गया। पाहन होइ परै जौ हरुआ॥
जेहि ऊपर अस गरुवा पीऊ। सो कस डोलाए डोलै जीऊ?॥
फरत नैन चेरि सौ छूटीं। भइ कूटन कुटनी तस कूटीं॥
नाक कान काटेन्हि, मसि, लाई। मूँड़ मूँड़ि कै गदह चढ़ाई॥

मुहमद विधि जेहि गरु गढ़ा, का कोई तेहि फूँक।
जेहि के भाग जग थिर रहा, उड़ै न पवन के झूँक॥१७॥

 


दुःख भरा तन...केसा=शहर में जितने रोयें या बाल नहीं उतने दु:ख भरे हुए हैं। सोन नदी...गरुवा=महाभारत में शिला नाम को एक ऐसी नदी का उल्लेख है जिसमें कोई हलकी चीज डाल दो जाए तो भी डूब जाती है और पत्थर हो जाती है। मेगस्थिनीज ने भी ऐसा ही लिखा है। गढ़वाल के कुछ सोतों के पानी में इतना रेत और चूना रहता है कि पड़ी हुई लकड़ी पर क्रमशः जमकर उसे पत्थर के रूप में कर देता है। पाहन होइ...हरुवा=हलकी वस्तु भी हो तो उसमें पड़ने पर पत्थर हो जाती है। चेरि=दासियाँ। छूटी=दौंड़ीं। कूटन=कुटाई, प्रहार। कुटनी कुट्टिनी, दूती। झूँक= झोंका।