पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/४३

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संयोग होने पर पद्मावती के रसरंग का वर्णन किया वैसे ही सिंहलद्वीप से विदा होते समय परिजनों और सखियों से अलग होने का स्वाभाविक दुःख भी। कवि ने जगह जगह पद्मावती को जैसे चंद्र, कमल इत्यादि के रूप में देखा है, वैसे ही उसे प्रथम समागम से डरते, सपत्नी से झगड़ते और प्रिय के हित के अनुकूल लोकव्यवहार करते भी देखा है। राघव चेतन के निकाले जाने पर राजा और राज्य के अनिष्ट की आशंका से पद्मावती उस ब्राह्मण को अपना खास कंगन दान देकर संतुष्ट करना चाहती है। प्रेम का लोकपक्ष कैसा सुंदर है! लोकव्यवहार के बीच भी अपनी प्राभा का प्रसार करनेवाली प्रेमज्योति का महत्व कुछ कम नहीं।

जायसी ऐकांतिक प्रेम की गढ़ता और गंभीरता के बीच बीच में जीवन के और और अंगों के साथ भी उस प्रेम के संपर्क का स्वरूप कुछ दिखाते गए हैं, इससे उनकी प्रेमगाथा पारिवारिक और सामाजिक जीवन से विच्छिन्न होने से बच गई है। उसमें भावात्मक और व्यवहारात्मक दोनों शैलियों का मेल है। पर है वह प्रेमगाथा ही, पूर्ण जीवनगाथा नहीं। ग्रंथ का पूर्वार्ध--आधे से अधिक भाग--तो प्रेममार्ग के विवरण से ही भरा है। उत्तरार्ध में जीवन के और और अंगों का संनिवेश मिलता है पर वे पूर्णतया परिस्फट नहीं है। दांपत्य प्रेम के अतिरिक्त मनुष्य की और वृत्तियाँ जिनका कुछ विस्तार के साथ समावेश है, वे यात्रा, युद्ध, सपत्नीकलह, मातृस्नेह, स्वामिभक्ति, वीरता, कृतघ्नता, छल और सतीत्व हैं। पर इनके होते हुए भी 'पदमावत' को हम शृंगाररस प्रधान काव्य हो कह सकते हैं। 'रामचरित' के समान मनुष्य जीवन की भिन्न भिन्न बहुत सी परिस्थितियों और संबंधों का इसमें समन्वय नहीं है।

तोते के मुँह से पद्मावती का रूपवर्णन सुनने से राजा रत्नसेन को जो पूर्वराग हुआ, अब उसपर थोड़ा विचार कीजिए। देखने में तो वह उसी प्रकार का जान पड़ता है जिस प्रकार का हंस के मुख से दमयंती का रूपवर्णन सुनकर नल को या नल का रूपवर्णन सुनकर दमयंती को हुआ था। पर ध्यान देकर विचार करने से दोनों में एक ऐसा अंतर दिखाई पड़ेगा जिसके कारण एक की तीव्रता जितनी अयुक्त दिखाई देगी उतनी दूसरे को नहीं। पूर्वराग में ही विप्रलंभ शृंगार की बहुत सी दशानों की योजना श्रीहर्ष ने भी की है और जायसी ने भी। पूर्वराग पूर्ण रति नहीं है, अतः उसमें केवल 'अभिलाष' स्वाभाविक जान पड़ता है; शरीर का सूखकर काँटा होना, मूर्छा, उन्माद आदि नहीं। तोते के मुँह से पहले ही पहले पद्मावती का वर्णन सुनते ही रत्नसेन का मुर्छित हो जाना और पूर्ण वियोगी बन जाना अस्वाभाविक सा लगता है। पर हंस के मुँह से रूप गुण आदि की प्रशंसा सुनने पर जो विरह की दारुण दशा दिखाई गई है वह इसलिये अधिक नहीं खटकती कि नल और दमयंती दोनों बहुत दिनों से एक दूसरे के रूप गण की प्रशंसा सुनते आ रहे थे जिससे उनका पूर्वराग 'मंजिष्ठा राग' की अवस्था को पहुँच गया था।

जब तक पूर्वराग आगे चलकर पूर्ण रति या प्रेम के रूप में परिणत नहीं होता तब तक उसे हम चित्त की कोई उदात्त या गंभीर वृत्ति नहीं कह सकते। हमारी समझ में तो दूसरे के द्वारा, चाहे वह चिड़िया हो या आदमी, किसी पुरुष या स्त्री के रूप, गुण आदि को सुनकर चट उसकी प्राप्ति की इच्छा उत्पन्न करनेवाला भाव