पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/४३७

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बंधन मोक्ष, पद्मावती मिलन खंड २५५ परसि पायें राजा के रानी । पुनि आरति बादल कहें प्राती । पूजे बादल के जदंडा। तुरय के पायें दाब कर खंडा॥ यह गजगवन गरब जो मारा । तुम राखाबादल व गोरा सेंदुर तिलक जो प्रयुस अहा । तुम राखामाथे तौो रहा काठ काछि तुम जिन पर खेला। तुम जिज ग्रानि मंजूषा मेला राखा त, चंवर पौधारा से राखा द्रघंट तुम हनुवंत होई धुजा पई तब चितर पिय आइ बईढ़े शनि गजमत्त चढ़ावा, नेत विठाई खाट जा, । व, सुखपाट निसि राजे रानी औठ लाई। पिउ मरि जिया नारि जनु पाई रति रति राजे दुख उगसारा। जियत जीउ नहिं होऊँ निनारा कठिन दि तुरकह लेइ गहा। जो संवरा जिड पेट न रहा घालि निगड़ गोबरी लेइ मेला। सकरि नौ कुंधियार दुहला खन खन करहि सड़ान्ह अका। औ निति डोम श्रावहि बाँका पाढ़े साँप रहांह चढ़ पासा। भोजन सोईरहें भर सांसा राध न तहवें दूस कोई न जन पवन पानि कस होई आास तुम्हारि मिलन , तब सो रहा जिसू पेद्र नाहि त होत निरास जौ, कित जीवनकित भेंट तुम्ह पिड ! आइ परी अ िबेरा अब दुख न केवल धनि के छोड़ेि गएड सवर महै मोहों। सरवर सूखि गएजु बिनु तोड़ीं के लि जो रत हंस उड़ गय दिनिअर निपट सगे बैरी भयक गई तजि लहरें पुरडनि पाता। मुझे , सिर रहेउ न छाता भडु मीन, तन तैलफ लागा। बेिरह औइ बैठा होइ कागा । (४) प्रय के‘कर खंडा = बादल के घोड़े के पैर भी दावे अपने हाथ से। सेंदुर तिलक ‘अहा = सिंदूर की रेखा जो भ गजगामिनी के सिर पैर कुश के समान है अर्थात् मुभ पर दाब रखनेवाले मेरे स्वामी का (अर्थात् सौभाग्य का’ सूचक है । तुम जिलू मेला = तुमने मेरे शरीर में प्राण डाले औौधारा = द्वारा लूट मुंघरूदार करधनी। नेत = रेशमी चादर; जैसे, ओढ़े नत पिछौरा-—गोत । (५) रति रति = रत्ती रत्ती, थोड़ा थोड़ा करके सब उगसारा = निकाला, खोला, प्रकट किया। निगड़ = बेडी। प्रोबरी। तंग कोठरी का करह टू दागा करते थे। बाँका = हंसिए की तरह झुका छोलते हैं । भोजन सोइ साँसा = भोजन इतना ही मिलता था जितने से साँस या प्राण बना रहे रांव के पास, समीप। (६) तुम्ह पिट बेर - तुम। पर तो ऐसा समय पड़ा। न खंडहेि Z नहीं खाते , नहीं चबाते थे २७