पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/४४५

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अखरवट दोहा गगन हुता नह महि हुती, हते चंद नहि तुर । ऐसइ अंधकूप महें रचा मुहम्मद नूर । सोरठ सई केरा नौंवहिया पूर, काया भरी। मुहमद रहा न टाँव, दूसर कोझ न समाइ अब ॥ आदिह से जो आादि गोसाई । जेइ सब खेल रचा दुनियाई ॥ जस खेलेसि तस जाइ न कहा । चौदह भुवन पूरि सब रह ॥ एक अकेलन दूसर जाती। उपजे सहस अठारह भाँती । जी वे आानि जोति निरमई। टीन्द्रति ज्ञान, समझि मोहैि भई। श्र मड खोला।भड़ मख जीभ बोल में बोला है। उन्ह आानि बार वे सब किड्रकि । जैसे चले करता नाहींमेघ परछाहीं । परगट गपत बेिचारि बझा स । सो तजि दूसर और न सू । कहीं , सब आाख सो ज्ञान ककहरामहें लेखि । पंडिंत पढ़ जोरेहु देखि अखावटी, टूटा ॥ सोरठ। हता जो सुन्न-मसुन्न, नावें ठावें ना सुर सबद । तहाँ पाप नहि पुन्न, मुहमद आापुहि आयु महें ॥ १ ॥ (हता = था। आकप - शन्य अंधकार । नर , ज्योति, हदीस के १) अनुसार ईश्वर सबसे ने पहले महम्मद पैगंबर की ज्योतेिं उत्पन्न की। केरा = का मुहम्मद रहा = । "अब कवि मुहम्मद कहते हैं कि नाम ही तन मन में पर रहा है, अब दूसरी वस्तु के लिये हृदय में कहीं जगह ही नहीं है । दूसर जाती = दूसरी जिन्स नहीं थी, दूसरे प्रकार की कोई वस्तु नहीं थी। सहस अठारह भती= जैसे हमारे यहाँ चौरासी लाख योनियों की कल्पना है वैसे ही मुसलमानों के यहाँ अठारह हजार की ! बार = बाल से (साधारण कल्पना है ईश्वर ने कि ब्रश या बाल से चीरकर मैह बनाया) । करता = जीव जो कम करता दिखाई पडता है । सुन्न-न-सुन्न - बिलकुल शून्य । मुहम्मद आापुहि आए महें = समय ईश्वर की कलाएँ ईश्वर में ही लीन थीं, सृष्टि रूप में उस उनका विस्तार नहीं हना था ।