पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ३८ )

रात दिवस बस यह जिउ भोरे। लगौं निहोर कंत अब तोरे॥

यह तन जारौं छार कै कहौं कि पवन उड़ाव।
मकु तेहि मारग उड़ि परै कंत धरै जहँ पाव॥

संयोग शृंगार

यद्यपि 'पदमावत' में वियोग शृंगार ही प्रधान है, पर संयोग शृंगार का भी पूरा वर्णन हुआ है। जिस प्रकार 'बारहमासा' विप्रलंभ के उद्दीपन की दृष्टि से लिखा गया है, उसी प्रकार षड्ऋतु वर्णन संयोग शृंगार के उद्दीपन की दृष्टि से। राजा रत्‍नसेन के साथ संयोग होने पर पद्मावती को पावस की शोभा का कैसा अनुभव हो रहा है—

पद्मावति चाहत ऋतु पाई। गगन सोहावन भूमि सोहाई॥
चमक, बीज, बरसै जल सोना। दादुर मोह सबद सुठि लोना॥
रँगराती पीतम सँग जागी। गरजे गगन चौंकि गर लागी॥
सीतल बूँद ऊँच चौपारा। हरियर सब देखाइ संसारा॥

नागमती को जो बूदें विरह दशा में बाण की तरह लगती हैं, पद्मावती को संयोग दशा में वे ही बूदें कौंधे की चमक में सोने की सी लगती हैं मनुष्य के आनंद या दुःख के रंग में रँगी हुई प्रकृति को ही जायसी ने देखा है, स्वतंत्र रूप में नहीं। यह षड्ऋतु वर्णन रूढ़ि के अनुसार ही है। इसमें आानंदोत्सव और सुख संभोग आदि का कविप्रथानुसार वर्णन है।

विवाह के उपरांत पद्मावती और रत्‍नसेन के समागम का वर्णन कवि ने विस्तार के साथ किया है। ऐसे अवसर के उपयुक्त पहले कवि ने कुछ विनोद का विधान किया है। सखियाँ पद्‍मावती को छिपा देती हैं और राजा उससे मिलने के लिये आतुर होता है। पर इस विधान में जायसी को सफलता नहीं हुई है। विनोद का कुछ भाव उत्पन्न होने के पहले ही रसायनियों की परिभाषायें आ दबाती हैं। सखियों के मुँह से 'धातु कमाय सिखे तैं जोगी' सुनते ही राजा धातुवादियों की तरह बर्राने लगता है जिसमें पाठक या श्रोता का हृदय कुछ भी लीन नहीं होता। कवियों में बहुज्ञताप्रदर्शन की जो प्रवृत्ति दिनों से चल पड़ी, उसके कारण कवियों के प्रबंधाश्रित भावप्रवाह में कहीं कहीं बेतरह बाधा पड़ी है। प्रथम समागम के रसरंग प्रवाह के बीच 'पारे, गंधक और हरताल' का प्रसंग अनुकूल नहीं पड़ता। यदि प्रसंग अनुकूल हो तो उसका समावेश रसधारा के बाहर नहीं लगता, जैसा कि इसी समागम के प्रसंग में 'सोलह शृंगार' और 'बारह आभरण' का वर्णन। यह वर्णन नायिका अर्थात् आलंबन की रूपभावना में सहायक होता है। फिर भी वस्तुओं की गिनती से पाठक या श्रोता जी अवश्य ऊबता है।

इस प्रकार के कुछ बाधक प्रसंगों के होते हुए भी वर्णन अत्यंत रसपूर्ण है। पद्‍मावती जिस समय शृंगार करके राजा के पास जाती है उस समय कवि कैसा मनोहर चित्र खड़ा करता है—